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दो बहनें

की गृहस्थी में आकर जो तोड़-फोड़ कर गई हूँ वह सब इतने दिनों में ठीक हो जायगा। मेरे लिये कुछ चिन्ता न करना, तुम्हारे हो लिये मेरे मन में बराबर चिन्ता बनी हुई है ।"

शर्मिला की चिट्ठी---

"दादी, तुम्हार चरणों में मेरे सहल सहस्त्र प्रणाम। अज्ञान-वश अपराध किया है, क्षमा करना। यदि यह अपराध न हो तो कम-से-कम यही जानकर सुखी हूँगी। इससे अधिक सुखी होने की आशा मन में नहीं रखूँगी। किसमें सुख है, यही बात क्या निश्चित रूप से जानती हूँ! और मुख यदि न मिले तो नहीं ही सही। भूल करते हुए अब डर लगता है।"

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