एक वैष्णव बनिया की बेटी. रामानंदी से व्याही मो मारग में या वैष्णव के गाम में डेरा किये। तव यह वैष्णव अपनी बेटी को नाम सुनायवे ल्यायो। ता समे यह वेटी बरस डेढ़ की हती। सों श्रीगुसांईजी आप वाको प्रसन्नता पूर्वक नाम सुनायो । पाछे आज्ञा कीनी, जो - या वेटी को सर्वात्मभाव सिद्ध होइगो । पार्छ यह वेटी बड़ी भई तव श्रीभागवत सुनन लागी । पाछे वा वैष्णव ने एक जाति के लरिका सों याको व्याह कियो। सो वह रामानंदी हतो। सो वह श्रीरघुनाथजी के स्वरूप में आसक्त हुतो । और या वह कौ मन श्रीकृष्ण की लीला में आसक्त भयो हुतो। रात्रि दिन श्रीकृष्ण की लीला कौ चिंतन करयो करे। सो केतेक दिन पाछे वह रामानंदी वैष्णव अपनी बहू कों वुलावन आयो । तव वाके माता - पिता ने अपनी बेटी विदा करि दीनी । तब वे स्त्री पुरुप दोऊ चले । सो मजिल पें जाँड् उतरे । तव वा लरिकिनी में रात्रि को विचारयो. जो- याको भगवद्भाव कैसो है सो मैं याको पूछि देखों । तब वा लरि- किनी ने अपने पति सों पूछ्यो, जो - तुम्हारे श्रीरघुनाथजी कहा करत हैं? तब वाके पुरुप ने कही, जो-हमारे श्रीरघुनाथजी तो राजधानी करत हैं। सो उनके पास श्रीजानकीजी विराजन हैं। सो दोउ जनें राज करत हैं, लीला करत हैं। नव पुरुप अपनी सी सों पृथ्यो. जो- तुम्हारे श्रीकृष्णचंद्रजी कहा करत हैं ? तब स्त्रीने अपने पुरुप सों कही. जो - हमारे श्रीकृष्ण- चंद्रजी तो बनुनाद करि के सब ब्रजमुंदरीन को बुलाई के रास रमन उन सौ करत हैं। उनके संग मिलि के । सो उहां विमान पे बडि बढ़ि के मब देवता देखन को आग हैं। मो नाकी
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