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पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१०९

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RC दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता कसर नाहीं परी । ऐसो मिलि गयो हतो । तव वह राजा वैष्णवन के पावन परयो । और वा राजा ने दोऊ हाय जोरि के उन वैष्णवन सों कयो, जो- तुम बड़े भगवदीय महापुरुप हो । तातें मेरो अपराध क्षमा करो। ऐसी वोहोत विनती राजा ने कीनी । और कह्यो, जो - याको अपराध में भुगतुंगो । अपनो कियो पावेंगे। ता पानें राजा वा परोसी को मारन लाग्यो । तव वैष्णवन ने वा परोसी को मारन न दीनो। भावप्रकाश-सो यातें, जो - यह वैष्णव को धर्म नाही है। वैष्णव कों जीव मात्र पर दया राखनी । काहूकों बूरो होन न दे । यह जतायो । ता पाछे वा परोसी कोंगाम तें वाहिर काढि दीनो, और वा परोसी को घर लूटि लीनो। पाठें राजा ने वैष्णवन कों राखिवे कों वोहोत ही आग्रह कीनो। परि वे रहे नाहीं। तब सब वैष्णवन को राजा ने बिदा किये । सो वे सव श्रीगोकुल कों गए । ता पाछे उन वैष्णवन सव समाचार विस्तारपूर्वक श्रीगुसांईजी सों कहे। तव श्रीगुसांईजी सब वैष्णवन के वचन सुनि कै बोहोत प्रसन भए । सो उन दोऊ भाईन के ऊपर श्री- गुसांईजी सदा प्रसन्न रहते। भावप्रकाश-या वार्ता में यह जतायो, जो - घर आए वैष्णवन की सेवा भीति पूर्वक करनी । सव कष्टनकों सहन करनो । भगवदद्धर्म आगें लौकिक वैदिक तुच्छ करि जानने । सो वे दोऊ भाई श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपापात्र भगवदीय हते । तातें इनकी वार्ता को पार नाहीं, सो कहां तांई कहिए। वार्ता ॥१०३॥