२ दोसी बावन वैष्णवन की वार्ता + मैं तो पर प्रसन्न हों । तब परमेसुरी ने ढोऊ हाथ जोरि के विनती करी, जो अहो श्रीमहारानीज़ ! जैसें आपने कुमारिकान को मनोरथ पूरन कियो, ता भांति मेरो हू मनोरथ है, सो कृपा करि पूरन कीजिये । हों आप की सरनि हुँ । तर श्रीयमुनाजी कृपा करि वासों पूछे, जो-तेरो कहा मनोग्य है ? मो तू कहि । तब परमेसुरीने कह्यो, जो - अहो श्रीमहारानीज़ ! आप व्रज की अधिष्ठात्री हो, ऐसो श्रीठाकुरजी आप मोसों कहे हैं । तातें आप म दीन पर ऐसी कृपा कीजिए, जो- मेरो ब्रजलीला में अंगीकार होई । और मोकों कछ चाहना नाहीं है। तब श्री- यमुनाजी प्रसन्न है आज्ञा किये, जो - तथास्तु ! ऐसे ही होइगो। या प्रकार श्रीयमुनाजी वाको बर दे के अंतर्धान भए । पार्छ कळूक दिन में परमेसुरी को व्रज में जनम भयो। सो 'सखीतरा' में एक गुजर के जन्मी । सो परस बारह की भई । तब याको व्याह एक ब्रजवासी के लरिका सो भयो । सो वह गुजर हतो। श्रीगुसांईजी के पास कुटुंब सहित विनती करि के नाम पायो हतो । वार्ता प्रमंग-१ सो वह ब्रजवासी आन्योर में' रहतो। सो एक समें वह अपने बेटा को विवाह के अपने घर वह ले के आयो। सो वह बहू वड़ी हुती । सो वाके सास-ससुरने वाको श्री- गुंसांईजी सों नाम दिवायो। तव वह श्रीगुसांईजी की सेवकिनी भई । ता दिन तें वह वह नित्य श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन कों जाँइ । सो वाकों श्रीगोवर्द्धननाथजी में आसक्ति भई । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन किये विनु अन्न-जल न ले । ऐसी याकी टेक । सो वह वह बड़ी भगवदीय भई । और जब तें वह बहू घर में आई ताके थोरेइ दिन पाळे वा ब्रजवासी की एक भैंसि खोइ गई। तब घर के मनुष्य तो सगरे भैसि को खोजन गए । सो एक वा बहू की सास बृद्ध हती । सो घर की रखवारी द्वारे बैठि करति हती। और वह बहू भीतर को काम-काज करति हती। तब वा बहू की वार्ता प्रसग-२
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