पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१२

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३ एक गुजर के बेटा को वह सास को परोसिनिन कही, जो-तुम्हारी वह को पाँव आछौ नाहों । जो-याकों देखो! घर में आवत थोरैई दिन भए और भैंसि खोई गई । तब यह वात वा बहू ने अपने कानन सुनी। तव वह बहू भीतर जाँइ वोहोत संताप करि के रोवन लागी। ता पार्छ वा बहू ने श्रीगोवर्द्धननाथजी सों विनती कीनी, जो - महाराज ! अव तो इहां कोई तुम विनु मेरे हे नाहीं । जो- मेरी पुकार सुने । तातें हे गाड़े दिन के मीत गोपालं ! अब मेरे माता-पिता तो दूरि भए । और इन सगरेन तो मेरे माथे कलंक धरयो है। तातें आजु जो ए अपने घर भैंसि लेके आगे तो मैं एक दिन को माखन आरोगाउंगी। ऐसे कहिकै वा ब्रजवासिनी ने श्रीगोवर्द्धननाथजी कों सुद्ध भाव सों वोहोत ही प्रार्थना करि कै दंडवत् करि कही. जो-हे देवदमन ! या संकट में तें तू छुटावेगो तो हों छुटूंगी। नाँतरु अपने घर में प्रानत्याग करोंगी। सो याकी विनती सों श्रीगोवर्द्धननाथजी ने उन ब्रजवासिन को भैसि मिलाइं. दीनी । सो वे ब्रजवासी सव अपने घर भैसि लेकै अति आनंद सों आए.। तापाछे भैंसि को तो बांधि दीनी। और वह व्रजवासी सगरे आपस में वतरान लागे, जो-भाई ! यह वह कौ पाँव वोहोत आली है । जो-गई भैसि पाई । या प्रकार सगरे ब्रजवासी बहू की उपमा करन लागे। परि वह बहू तो अपने मन में कह. जो- यह भैसि तो श्रीगोवर्द्धननाथजी के प्रताप मां पाई है। सो वह बहू ऐसी भगवदीय हती। वाकी ऐसो सरल सुभाव हतो। भावप्रकाग--या वार्ता में यह जनायो, जो-वैष्णव को कमो हु कलंक आइ लगे तोऊ श्रीगोवर्द्धननाथजी को आश्रय न छोग्नी । काहेत. जो-श्रीगावईन-