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पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१११

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१०० दोसौ घावन वैष्णवन की वार्ता सों विनती किये, जो - महाराज ! ये राजा आपकी सरनि आयवे की अभिलाषा करत है । तातें कृपा करि आप इनकों सरनि लीजिए। तव श्रीगुसांईजी दोऊ भाईनकी ओर प्रसन्नता पूर्वक देखि आज्ञा किये, जो-इनकों सरनि लेनो उचित तो नाही, काहेतें, जो- इन वैष्णव कौ अपराध किया है । परितुम विनती करत हो तातें इनको सरनि लेइंगे । पाछे श्रीगुसांईजी कृपा करि राजा को सव कुटुंव सहित नाम दै सरनि लियो । दूसरे दिन व्रत कराय समर्पन करायो। सो राजा श्रीगुसांईजी को सेवक भयो। तव श्रीगुसांईजी राजा को आज्ञा किये, जो-आज पाठे वैष्णव को अपराध मति करियो और इन दोऊ भाई साँचोरा ब्राह्मन को पूछि कै सव काम करियो । पाठे राजाने श्रीगुसां- ईजी कों वोहोत भेट कीनी । ता पाछे राजा ने श्रीनवनीत- प्रियजी आदि सातों स्वरूपन के दरसन किये । पाठे श्रीगुसां- ईजी आप श्रीनाथजीद्वार पधारे । तव वह राजा हू श्रीगुसांई- जीके संग श्रीनाथजीद्वार श्रीनाथजीके दरसन कों गयो । तहां श्रीगुसांईजी आप स्नान करि कै श्रीगिरिराज पर्वत ऊपर मंदिर में पधारे। तब राजाने हू पर्वत ऊपर चढि के श्रीगोवर्द्धननाथ- जीके दरसन किये। सो वा राजाने श्रीगोवर्द्धननाथजी कों वोहोत भेट कीनी । ता पाछे कितनेक दिन तांई वा राजाने श्रीनाथ- जीके तथा श्रीगुसांईजीके दरसन किये । पाछे श्रीगुसांईजी सों आज्ञा मांगिदोऊ भाई साँचोरा ब्राह्मनन को संगले अपने देस कों आयो । पाछे वा राजाने दोऊ भाई साँचोरा ब्राह्मनन को बोहोत भांति समाधान कियो। और कह्यो, जो-तुम्हारी कृपा तें हौं वैष्णव भयो हूं । तातें हौं तुम्हारो रिनिया हूं। तव ता दिन तें