११८ दोसौ वाचन वैष्णवन की वार्ता जब सवारो भयो, तब श्रीनाथजीने जाँय के वा ब्रजवासी को जगायो । जो - अरे भैया उठि ! तब वह व्रजवासी जाग्यो । सो अपनी कमरि वांधि के तैयार भयो। तव श्रीगोवर्द्धननाथजी कहे, जो- चलो। पाछे श्रीगोवर्द्धननाथजी ने कही, जो - सूरत तो आई । तव वा ब्रजवासी ने श्रीनाथजी सों कह्यो, जो-भैया! मैं तो सुन्यो है, जो-सूरत द्वै महिना कौ पैंडो है। सो आज तो आपुन एकही दिन में आय पहोंचे हैं। तव श्री- गोवर्द्धननाथजी ने वा व्रजवासी सों कह्यो, जो- भैया ! आपुन तो सगरी राति चले हैं। मेरे पाँव हारि गए हैं। सो तोकों खवरि नाहीं है। तव वा ब्रजवासी ने कह्यो, जो- भैया ! मेरे हू पांव तो हारि गए हैं। तव श्रीगोवर्द्धननाथजी हँसि कै कह्यो, जो-अरे भैया! तू गाम में जा। सो गाम में अधिकारी टहलुवा हैं । सो तिनकों पत्र तथा महाप्रसाद की थेली दीजियो। और विन सों यों कहियो, जो- हम तो यहां रहेंगे नाहीं। जो- आज की आज हमको भेट दे। तव वे तोसों कहेंगे, जो-तुम यहांई सोय रहो । महाप्रसाद लेउ। परंतु तू काहू को कह्यो मानियो मति। सीधो मेरो तथा तेरो लेकै यहां मेरे पास आईयो। सो आपुन दोऊ जनें यहां जेमेंगे। तव यह ब्रजवासी श्रीगोवर्द्धननाथजी, के बचन सुनि के गाम में आय के अधिकारी टहलुवान सों मिल्यो । सो उन को पत्र तथा महाप्रसाद दिये । और कह्यो, जो - भैया ! मेरी भेट ल्याउ । तब वैष्णवन टहलुवान कह्या, जो - अरे भैया ! यहां तो भेटिया आवत हैं सो महिना दोइ. चारि रहत हैं। सो तुमको डेरा देई। तुम हू रहो। और महा- प्रसाद नित्य लियो करो। तब वह ब्रजवासी बोल्यो, जो- भैया! -
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