पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१४

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एक गुजर के वेटा की यह मन में तो डरपन लागी । जो-मति कोऊ मोको माखन लेके जाँत देखि लै । और जो-कहूं काहू ने देख्यो तो वह कहा कहेगो ? जो तू वह माखन लेकै कहां जात है ? तो हों वासों कहा उत्तर करोंगी ? सो या प्रकार आंगन में लिये वह वह माखन को सोच करन लागी। तापाछे वाने वह माखन घर में पाछौ जाय धरयो । सो ताही समै श्रीगोवर्द्धननाथजी एक हाथ में लाल छरी लेके वा ब्रजवासिनी के आगे आइ के ठाढ़े रहे । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी सात वरस के लरिका को स्वरूप करि के आइ ठाढ़े रहे। तव वा ब्रजवासिनी सों श्री- गोवर्द्धननाथजी कहे, जो-मेरो माखन अमूकी ठौर आज को तू अव ही आंगन तांई ल्याइ कै पाछे धरचो है, सो लोंदा मेरो ल्याऊ । तव वा ब्रजवासिनी ने विचारयो, जो-यह प्राकृत वालक होइ तो यह भेद की बात कहा जाने ? तासों ये सर्वथा श्रीगोवर्द्धननाथजी ही मेरी दया विचारि के आए हैं। सो श्रीगोवर्द्धननाथजी कृपा करि पधारे हैं। तव वह वह वह माखन कौ लोंदा ल्याइ कै श्रीगोवर्द्धननाथजी के श्रीहस्त में दीनो। सो श्रीगोवर्द्धननाथजी याही के हाथ सों वह माखन आरोगे। ता पाछे श्रीगोवर्द्धननाथजी अपने मंदिर पधारे तव वा ब्रजवासिनी ने श्रीगोवर्द्धननाथजी सों विनती करी. जो-लाल ! मोसों तुम्हारे पास आयो जाँत नाहीं। तासी हों जा समे दधिमंथन करति होहि ता सम जो आप इहां पधारो तो हों तुमकों एक माखन को लोंदा सद्य करि के नित्य आरोगायो करों। तब श्रीगोवर्द्धननाथजी या ब्रजवासिनी सों यह आज्ञा करी, जो-हों तेरे घर नित्य आयो करूंगो।