पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता ईजी कौ सेवक हुतो । सो श्रीगुसांईजी आगरे पधारे तब याने अपने बेटा कों श्रीगुसांईजी पास नाम-निवेदन करवायो। ता पाछे वह क्षत्री अपनो कुटुंब ले श्रीगोकुल आइ रह्यो । तहां कछक दिन में इन की देह छटी। पार्छ वेटा श्री- गोकुल ही में रह्यो । सो वैष्णवन को संग करे । कथा-वार्ता नित्य सुने । सो वाकी प्रीति श्रीगुसांईजी में बढ़ी । सो वह श्रीगुसांईजी की सेवा में निन्य तत्पर रहतो। वार्ता प्रसग-१ सो एक दिन श्रीगुसांईजी आपु उष्णकाल में मंदिर सों पहोंचि भोजन करि के वैठक में विराजे हते । तव मध्याह्य समै प्रभु अपने श्रीअंग में चंदन लगावते । सो वैष्णव अपने अपने घर तें एक एक दिवस अति सुगंध कौ अरगजा ल्यावते। सो प्रभु अंगीकार करते। सो एक दिवस या वैष्णव कौ ओसरा आयो । तव वह अपने हाथ सों श्रीगुसांईजी के श्रीअंग कों अरगजा समर्पन लाग्यो । ता समै वा वैष्णव के मन में आई, जो-सगरे वैष्णव श्रीनाथजी की और श्रीगुसांईजी को एक स्वरूप कहत हैं। और ये तो मनुष्य देह धरि दरसन देत हैं ! सो यह मेरे मन को संदेह कौन भांति सों निवृत्त होइगो ? यह वाके मन की बात श्रीगुसांईजी जानें । तब वह वैष्णव चंदन लगाइ कै दंडवत् करि कै घर को जान लाग्यो। तव श्रीगुसांईजी पोंढते समै वासों यह आज्ञा करे, जो वैष्णव ! तुम थोरी सी बार पंखा करि कै पाछे घर को जइयो । तब वह वैष्णव श्रीगुसांईजी को पंखा करन लाग्यो। और श्री- गुसांईजी अति झीनो उपरेना ओढ़ि के पोंढ़े । पाछे वा वैष्णव कों प्रभुन उपरेना भीतर साक्षात् श्रीनाथजी के दरसन पंखा करत समै दिये । तब तो वह वैष्णव अपने मन में विचार करन लाग्यो, जो-यह मोकों सपनो सो कहा होत है ? सो