पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१५६

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एक ब्राझनी, उपरावारी २४३ आवत जात हैं तिन सों चून मांगि निर्वाह करत है। और घाट पै गाय भैसि बेल वोहोत आवत हैं । सो गोवर बोहोत होत है। ताके उपरा थापत हैं। सो मोसों कह्यो, जो-ये ऊपस सव श्रीगुसांईजी के हैं । मैं श्रीगुसांईजी की दासी हूँ । सो ले जाउ । सो नाव भरि के ऊपरा ल्यायो हूं। और एक नाव भरि कै ऊपरा और होइगे । सो वा ब्राह्मनी ने कह्यो, जो-यह नाव ले जावो दूसरी नाव और ल्याइओ। तव यह सुनि कै श्रीगुसांईजी वा ब्राह्मनी के ऊपर वोहोत प्रसन्न भए । भावप्रकाश शाहेतें, जो - याको दोष बुद्धि नाहीं है। एकरस भाव है । तात प्रसन्न भए। तव श्रीगुसांईजी वा ब्राह्मनी को बुलाइवे कौ विचार कियो। तव वा ब्रजवासी सों कहे, जो-अव फेरि नाव ले जाँइ कै नाव में ऊपरा भरि कै वा ब्राह्मनी को नाव में बैठारि के यहां लिवाइ ल्याइयो । पाठें वह ब्रजवासी घर में उपरा धरि कै पाऊँ नाव ले के पार आयो। तव वा ब्रजवासी ने वा ब्राह्मनी सों कह्यो, जो- श्रीगुसांईजी तेरे उपर प्रसन्न होंइ कै तोकों बुलाई है। तव यह सुनि के वह ब्राह्मनी वोहोत प्रसन्न भई । पाळे सगरे ऊपरा नाव में भरि कै पाजें वह ब्राह्मनी अपने श्रीठाकुरजी कों नाव में चढाय के पाऊँ वैठी । सो वह नाव पार आई। सो उत्थापन के समै श्रीगुसांईजी व्हायवे को पधारे हते । ता समै वह ब्राह्मनी अत्यंत आतुर होइ के जलधारा में आई दंडवत् करी । नेत्रन में तें आंसू जात हैं । सुख तें कछ वोल आवत नाहीं। तब ऐसी दसा देखि कै श्रीगुसांईजी को चाकी बोहोत दया आई । ता पाछे श्रीगुसांईजी अपने श्रीहस्त कमल