१० दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता ८ ये भ्रमिता के संग 'गोपीतलैया' पै आई ही। सो इन हु को पुष्टि-लीला को अनुभव भयो है । तातें ये व्रजलीला को प्राप्त भई । सो बात ऊपर कहि आए हैं। सो गोपालदास भगवद् ईच्छा तें गुजरात में एक साँचोरा ब्राझन के प्रगटे । सो ये वरस वीस के भए तब इन के माता पिता मरे । ता पाछे कतेक दिन में श्रीगुसांईजी द्वारिकाजी श्रीरनछोरजी के दरसन को पधारे । सो गोपालदास के गाम में डेरा किये । तब गाम के वैष्णव सब मिलि के श्रीगुसांईजी के दरसन कों आए । सो उनके साथ गोपालदास हू आए । सो गोपालदास ने श्रीगुसांईजी के दरसन किये । तब श्रीगुसांईजी गोपलदास की ओर देखि कै आज्ञा किये, जो गोपालदास ! श्रीगोवर्द्धननाथजी की सेवा में कब आवेगो ? तब तो गोपालदास चक्रत से व्है रहे । सो अपने मन में विचारे, जो ये कोई महापुरुष हैं। नाँतरू मेरो नाम कैसे जानें ? तातें इनकी सरनि जाँइ अपनो जनम :कृतास्थ करों, तो आछौ है। पाछे गोपालदास दोऊ हाथ जोरि के विनती किये, जो-महाराज ! हों आपकी सरनि हू। तातें कृपा करि कै अपनो सेवक कीजिए। तब श्रीगुसांईजी प्रसन्न व्है गोपालदास कों नाम-निवेदन कराए। तापाछे गोपालदास ने विनती कीनी, जो-महाराज ! कृपा करि के मोकों अपने चरनारविंद की टहल दीजिए तो आछौं। तब श्रीगुसांईजी गोपालदास सों कहे, जो-गोपालदास ! तुम श्री- गोवर्द्धननाथजी की सेवा करो। और हमारी ह टहल करो। तव गोपालदास विनती किये, जो-महाराज ! मेरी हू यही इच्छा है, तातें आप मोकों अपनो जानि चरनारविंद के निकट राखिए । पार्छ गोपालदास श्रीगुसांईजी के संग द्वारिकाजी गये । सो मारग में श्रीगुसांईजी के वस्त्र नित्य धोवे । और श्रीगुसांईजी की आज्ञा ते रसोई की परचारगी हू करे। ऐसे करत कछुक दिन में श्रीगुसांईजी द्वारिकाजी ते श्रीनाथजी- द्वार पधारे । सो गोपालदास हू श्रीगुसांईजी के संग श्रीनाथजीद्वार आए । पार्छ श्रीगोबर्द्धननाथजी के दरसन किये। वार्ता प्रसंग-१ सो गोपालदास को सुभाव सरल बोहोत । तातें श्रीगुसांई- जी आप इन को श्रीगोवर्द्धननाथजी की रसोई की सेवा दीनी । सो ये बोहोत प्रीति सों करन लागे। सो कछुक दिन में इन को सानुभावता जनाए । सो गोपालदास सों
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