१२ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता श्रीगुसांईजी वा ढाक के पास पधारे । ता ठौर श्रीनाथजी श्रीदाऊजी सहित सखा-मंडल में विराजे केलि करत हैं । सो श्रीगुसांईजी जाँइ दरसन किये । पाछे श्रीगुसांईजी सामग्री को थाल सव श्रीनाथजी आगे जाँइ भोग समयो । तव श्री- नाथजी और श्रीदाऊजी और सगरे सखान सहित अति आनंद सों आरोगे । पाछे श्रीनाथजी श्रीगुसांईजी को आज्ञा दिये, जो- तुम वोहोत श्रमित भए हो, तातें अव घर पधारो । और आज पाछे काहू को कह्यो मति मानो। और या भांति आओ मति । मोकों जो - कछू चहियेगो सो होही तुम सों आप तें मांगि लेहुंगो । यो कहि कै श्रीनाथजी श्रीगुसांईजी ऊपर अति प्रसन्न भए । पाठें श्रीगुसांईजी तो अपने घर पधारे । और श्रीनाथजी आप वन में खेलिवे कों पधारे । या प्रकार श्रीनाथजी श्रीवृंदावन में खेलते और श्रीगुसांईजी या भांति श्रीनाथजी की सेवा में तत्पर रहते । भावप्रकाश-या वार्ता में यह संदेह होई, जो - पहिले तो श्रीनाथजी आप गोपालदास पास सामग्री की कहवाये । और अब श्रीगुसांईजी सों ऐसे क्यों कहे, जो - "आज पाछे काहू को कह्यो मति मानो, और या भांति आओ मति ।" तहां कहत हैं, जो - श्रीनाथजी आप गोपालदास सों सामग्री की कहवाये । तामें श्रीगुसांईजी कों ल्याइवे की नहीं कही। श्रीगुसांईजी आप गोपालदास द्वारा सामग्री भेजते तोऊ श्रीनाथजी आप आरोगते । परि श्रीगुसांईजी को श्रीनाथजी में घनो ममत्व हैं । तातें आप लेकै पधारे । सो या भांति दास भाव प्रगट किये। सो या प्रकार तो पहिले हू आप स्यामढाक में सामग्री आरोगाई हैं। सो ऊपर गोपीनाथदास की वार्ता में कहि आए हैं। तातें वारवार श्रीगुसांईजी पधारें तो उन को श्रम होई । सो श्रीनाथजी सों सह्यो न जाई । क्यों ? जो यह स्नेह की रीति है, जो - अपने स्नेही को तनक हू श्रम होई तो महाकप्ट होई । तातें श्री- नाथजी आप श्रीगुसांईजी कों या भांति बरजे । यह भाव जाननो ।
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