एक क्षत्री वैष्णव, जिनको आत्मनिवेदन करवाया सो वे गोपालदास श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपापात्र भगवदीय हते । तात इनकी वार्ता को पार नाहीं, सो कहां तांई कहिए । वार्ता ॥८७॥ अब श्रीगुसांईजी को मेवक एक क्षत्री, पूरन को, जाो आत्मनिवेदन करवायो, निनकी बात को भाव कहत है- भावप्रकाश-ये मात्विक भक्त हैं । लीला में इनका नाम 'कृष्णप्रिया है। इन में कृष्ण की उनिहार है। तातें सब कोऊ इनकों 'कृष्णप्रिया' कहत हैं। सो इनका स्वभाव सरल बोहोत है। ये 'गुनचुडा' ते प्रगटी हैं. ताते उन के भाव- पूरब ये में श्रीजगन्नाथरायजी तें उरे कोस बीस पर एक गाम है । नहां एक द्रव्यपात्र क्षत्री के जन्म्यो । सो बालपने ते इन की कथा-वार्ता में सचि वोहोत हुती । सो जहाँ कहुँ कथा-वार्ता होई तहां ये जाँई । और साधु संत तो कोऊ गाम में आवे तिनकी प्रीतिपूर्वक टहल करे । पार्छ यह बग्स अठारह को भयो तब इन के माता पिता मरे। तब यह क्षत्री और ह मन लगाय के संत-यहंत महापुरुषन की टहल करन लाग्यो। जो - कोऊ साधु-संत गाम में आवे नयो. ताको यह क्षत्री आठी भांति समाधान करे । जाको खाइवे को न होई ताकों खाइवे को देई । कपड़ा न होई नाकों कपड़ा देई। या प्रकार ममाधान करे । रात्रि को संत-महंतन के पांउ दावे । या भांति बोहोत भक्ति-भाव संयुक्त व्ह सेवा करे । सो या क्षत्री को जस बोहोत फेल्यो । सो सब को जम मुनि के इनके यहां आवते। सो एक समै एक वैरागी या क्षत्री के द्वार पर आधी गत्रि को आयो । मो सीतकाल के दिन हते । सीत बोहोत हुती । सो वाके पास ओटिव विछायवे की कछ हतो नाहीं । तातें वह सीत में कांपन लाग्यो । तर वाने वा क्षत्री को घर खटखटायो । सो वह क्षत्री वा दिन घर हतो नाहीं । कल कार्यार्थ बाहिर गयो हुतो । सो वह वैरागी निग़म है उहाई द्वार पर परयो न्यो । सो मा नीत के वाफे प्रान निकासि गए। पाछे मवेने भयो नव वह क्षत्री अपने घर आयो । गो देखें तो द्वार पर बैरागी पग्यो है । मो याक ग्रान निरुनि गए हैं। नव या क्षत्री ने अपने मन में विचारयो. जो - दग्यो ! यह विचागे मंगे नाम मुनि के मेरे द्वार पर
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