पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२०६

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राजा आसकरन, नरवरगढ के १९१ महाराजाधिराज ! आसकरन गोविंदस्वामी के कीर्तन सुनि के एक कीर्तन के प्रभाव तें सरन आए हैं। तव श्रीगुसांईजी कहे, जो- गोविंदस्वामी ऐसे ही भगवदीय हैं। इन के कीर्तन एक हू जो-कोई धारन करे ताकौ निश्चय कल्यान होइ । यह सुनि कै आसकरन ने विनती करी, महाराज ! गोविंदस्वामी मोकों राजा जानि कै मोसों वोलत नाहीं । सो आपु कृपा करि के इन को आज्ञा देउ तो कछ गावनों मैं हू सीखं । तव श्रीगुसां- ईजी गोविंदस्वामी को बुलाई कहे, जो - गोविंददास ! आस- करन कों हू कछू सिखावो । याको राजमद नाहीं है। आसकरन वैष्णव हैं। और तुम्हारे कीर्तन के प्रभाव सों सरनि आए हैं। और तुम्हारे कीर्तन में रुचि वोहोत है । तातें तुम इन कों जो- ये पूछे सो वताईयो । तव गोविंदस्वामी ने कही, जो- महाराजाधिराज ! आप जब जीव को सरनि लियो चाहत हो तव अनेक उपाय कर लेत हो । सो मेरो नाम क्यों लेत हो ? भावप्रकाश--यह कहि यह जतायो, जो :- मैं तो आप को दास हूं। ताते प्रभाव अब आपही की है। . और मेरे कीर्तन में यह आसकरन कहा समुझेगो ? परि भली, अब आप आज्ञा किये हो सो कछुक वताउंगो। तब श्री- गुसांईजी कहे, तुम्हारे कछुक हू वताईवे में याकौ काम होइ जाइगो । पाछे आसकरन और गोविंदस्वामी और तानसेन ये तीनों जनें 'रमनरेती' जाते। तहां गोविंदस्वामी ने आसकरन कों लीला को क्रम और प्रातःकाल तें सेन पर्यंत, और वरस दिन के उत्सव को प्रकार वतायो। सो एक महिना लों गोविंदस्वामी ने वतायो । पाठे गोविंदस्वामी ने आसकरन सों कह्यो, जो-