१९२ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता अब तुम भगवद् सेवा करो। तब आसकरन ने गोविंदस्वामी कों नमस्कार करि कहे, जो - यह सब जो-कछु मोकों प्राप्त भयो सो तुम्हारी कृपा तें । तातें अब तुम जो कछु आज्ञा करो सो मोकों कर्तव्य है । ऐसें वोहोत प्रसंसा करि आसकरन और तानसेन श्रीगुसांईजी के पास चले । तव तानसेन ने आस- करन सों कही, जो-गोविंदस्वामी ने सगरे कीर्तन को प्रकार बताए सो मोकों खबरिन परी । तव आसकरन ने कही,जो- गोविंदस्वामी वड़ भगवदीय हैं। सो ये जाकों विचार के जितनो दान करें तिन को तितनो होइ । यामें हमारी तुम्हारी चले नाहीं । पानें आसकरन और तानसेन श्रीगुसांईजी की बैठक में आय दंडवत् श्रीगुसांईजी कों किये । तब आसकरन ने श्रीगुसांईजी सौ बिनती करी, जो - महाराजाधिराज ! गोविंदस्वामी ने भगवद् सेवा करन की आज्ञा करी हैं। सो अव आप आज्ञा करो सो मैं करों। तब श्रीगुसांईजी ने कही, जो- गोविंदस्वामी ने कही सोई तुम को कर्तव्य है । अव तुम घर जाँई कै भगवद् सेवा करो। तब आसकरन ने बिनती करी, जो - महाराजाधिराज ! आप स्वरूप पधराय देऊ तो मैं सेवा करों । तब श्रीगुसांईजी एक ठाढ़ो स्वरूप हतो सो खेल के ठाकुरन में बिराजतो सो श्रीगुसांईजी ने आसकरन के माथे पधराए । और 'श्रीमोहनजी' नाम श्रीगुसांईजी धरि दिए । तब आसकरन ने बिनती करी, जो - महाराज ! दोइ भितरीया जो-सेवा में आछी रीति भांति जानत होई सो मेरे संग करि देहु । तो मैं अपने देस में जाँइ घर में सेवा करों। तब श्री- गुसांईजी दोइ भीतरिया संग आसकरन के करि दिये । तब
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