२८८ दोसौ बावन वणवन की वार्ता हत्या गंगा स्नान ते ह न छूटेगी । ऐ तो बड़ो अपराध भयो। ताते याको निर्णय नाहीं। सो अव तो अन्न-जल त्यागि के देह छोरनी । जहाँ ताँई देह चले तहाँ ताँई मेवा करेंगे। ऐमो विचार करि के वोहोत पश्चात्ताप करन लागे । सो ऐसे करत दोइ दिना भए। तीसरे दिना प्रातही श्री- गोकुलनाथजी श्रीरनछोरजी के दरसन करि के पाछे राजनगर पधारे । सो भाइला कोठारी के घर विराजे । सो समस्त राज- नगर के वैष्णव दरसन को आए । सो श्रीगोकुलनाथजी के दरसन करि दंडवत् करि बेटे । परंतु वे दोऊ स्त्री-पुरुष नहीं आए। वे ऐसें कहते, जो-हमने गऊहत्या कीनी है। सो मैं गऊहत्यारो हूं । सो मोहोंडो कैसे दिखाऊं ? ऐसे रोवे, विल- विलावे । तव और वैष्णव ने ये समाचार श्रीगोकुलनाथजी सों कह । और विनती करी, जो - महाराज! श्रीकाकाजी महा- राज के कृपापात्र हैं। भले वैष्णव हैं। सो अव तो उन मन में ऐसो संकल्प कीनो है, जो - अन्नजल त्यागि के देह को त्याग करनो। ऐसें विचारि कै आज वा वैष्णव को तीन दिना भए हैं। जल हू नाहीं लियो है। तव श्रीगोकुलनाथजी आज्ञा किये, जो - उनकों बुलावो। तव वैष्णव ने जाँइ के उन दोऊ स्त्री पुरुप सों कही, जो - तुम को श्रीगोकुलनाथजी बुलावत हैं । तव वे वैष्णव आए । दूरि ठाढ़े भए । तब श्रीगोकुलनाथजी आज्ञा किये, जो - आगे आउ । पाछे श्रीगोकुलनाथजी पूछे, जो-कैसैं भई ? तव इन वैष्णवन कही, जो - कृपानाथ ! दोष तो मेरो है । सो ए दोष कैसें मिटे ? तव आपने आज्ञा करी, जो-यामें तो तुम कों कछु दोष नाहीं। तैने मारी नाहीं, दूबली
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