. एक डोकरी, जानें दांतिन भोग में धरी २९९ गुसांईजी पधारे हैं । तेरे सेवक होनो होइ तो चलि । हों विनती करों। तब वह डोकरी तत्काल वा वैष्णव के मंग चली। सो श्रीगुसांईजी के दरसन किये । पाठे वा वैष्णव ने विनती करी, जो - महाराज! या डोकरी की सेवक हॉन की बोहोत आरति हैं । तातें आप इन को कृपा करि सेवक कीजिए । तब श्रीगुसांईजी कहे. जो - या डोकरी के लिये ही तो हम यहां आए हैं । पाठे डोकरी को न्हवाइ नाम निवेदन करवाए । तत्र वा डोकरी ने कही, जो - कृपानाथ ! भगवत्सेवा पधराय दीजिए । तब श्रीगुसांईजी वाकों कृपा करि एक लालजो को स्वरूप पधगय दिये। तब वह डोकरी भक्ति-भाव संयुक्त श्रीठाकुरजी की सेवा कग्न लागी । घार्ता प्रसंग-१ सो वह डोकरी राजनगर में रहती । सो निष्कंचन हती। सो नित्य जो - वने सो सामग्री करि के भोग समर्पती । सो एक दिना 'मिलमा' की सामग्री करी हती। सो सिद्ध भई हती। इतने काहू वैष्णवने कही, जो - श्रीगुसांईजी पधारे ह । सो श्रीगुसांईजी श्रीरनछोरजी के दरसन करि कै राजनगर पधारे हते । सो वा डोकरी ने श्रीगुसांईजी पधारे सुनि के वेगिवेगि ताजी सामग्री समर्पि कै चमचा घर में न हतो सो एक दांतिन छिलि के खासा करि के चमचा के बदले धरी। और श्री- ठाकुरजी ते विनती करी, जो - महाराज ! यातें सामग्री हलाय कै सीरी होइ तब आरोगियो । मैं श्रीगुसांईजी के दरसन करि आउं । सो वा डोकरी को दरसन की वोहोत आतुरता हती। सो भोग धरि कै दरसन को गई। सो श्रीगुसांईजी के दरसन किये । पाठे आय के भोग सरायो। आचमन मुख वस्त्र करायो। इतने में एक वैष्णव आयो, श्रीठाकुरजी के दरसन किये । सो देखे तो भोग में एक दांतिन घरी है। तव वैष्णव ने अपने मन में विचारी, जो-ए पुरातन वैष्णव है । सो इनने दांतिन घरी हे सो रीति होइगी । तातें एतो निष्कंचन है तातें एक
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