३१० दोमो बावन वणवन की वार्ता लीनी। तब श्रीगुसांईजी वापे वोहोत प्रसन्न भए । मो ता मम वा नाऊ कों श्रीगुसांईजी के ऐसे दरमन भए मानी मानात पूरन पुरुषोत्तम हैं । तव वा नाऊ ने श्रीगुसांईजी को विनती कीनी, जो-महाराज ! मोकों नाम सुनाइए । तब श्रीगुसांईजी ने कृपा करि के नाम सुनायो । तव वह नाऊ बडो भगवदीय भयो । सो ता पाछे और कौ वा नाऊ ने वृतो नहीं कियो । तव वैष्णवन उन तें पूछ, जो - तुम और की मींक क्यों नाहीं वनाओ। तब वा नाऊ ने कह्यो, जो- श्रीगुसांईजी के नम्ब ऊतारि के और के कसें ऊतारुं ? और अपने राच हुते सो सब कुआँ में डार दिए । और कछ व्यौहार करि के अपनो निर्वाह करन लाग्यो । ता पाछे श्रीगुसांईजी श्रीरनछोड़जी के दरसन कों पधारे । सो दरसन करि के श्रीगुसांईजी फेरि वा नाऊ के गाम आये। तब वा नाऊ ने जो कछ हुतो सो श्रीगुसां- ईजी को भेंट करि दियो । ता पाछे श्रीगुसांईजी श्रीगोकुल पधारे । और वह नाऊ तो अपने गाम में रह्यो । मो जहां पर्यंत अपनी देह चली तहां ताँई और कछ वार्ता करी नाहीं। अष्टा- क्षर को नित्य स्मरन करे । श्रीगुसांईजी के स्वरूप को ध्यान नित्य करिवो करे । ऐसे करत कछक दिन में याकी देह छूटी। सो लीला में प्राप्त भयो । भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो - वैष्णव को अनन्यता ही बड़ो पदार्थ हैं । काहेतें, जो-अनन्यता सों मन को निरोध सिद्ध होत है। सो वह नाऊ श्रीगुसांईजी को ऐसो कृपापात्र भगवदीय भयो । तातें इन की वार्ता कहां तांई कहिए । वार्ता ॥१४६॥
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