पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३१८

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खी-पुरुष, आगरे के या प्रकार सगरी रात्रि स्त्री-पुरुष देवी की स्तुति वैठे बैठे किये। मनमें अनेक प्रकार सों विचार करत हैं। पाठे वे घरी रात्रि पाठली रही तव चाचा हरिवंसजी उठे । सो देखें तो देवी पंखा करत हैं । तव चाचा हरिवंसजी बोले, जो-तू कौन है ? सगरी रात्रि सेवा करी। तव देवी चाचा हरिवंसजी के पायन परि गई और विनती करी, जो- मैं देवी हो । सो मेरे मनमें मनो- रथ वोहोत दिन सों हतो। जो-श्रीगुसांईजी की सेवा करों। सो श्रीगुसांईजी की सेवा में तो मेरो अधिकार नाहीं है । तातें श्रीगुसांईजी की सेवा कहां तें मिले ? जैसें श्रीकृष्ण की सेवा में देवतान को अधिकार नाहीं है। स्तुति करि, फूलन की वर्षा करि अपने लोक में चले जात हैं, तैसेंही हमको अधिकार श्री- गुसांईजी की सेवा में नाहीं है । भावप्रकाश-यह कहि यह जतायो, जो- श्रीगुसांईजी को स्वरूप महा अलौकिक हैं। साक्षात् पूरन पुरुषोत्तम कोटि कंदर्पलावन्य हैं। ऐसो स्वरूप हैं। ताते देवता हू भूमि पर आई, आप की टहल करिवे की ईच्छा करत हैं । परि उन कों मिलत नाहीं । तातें गोपालदासजी वल्लभाख्यान में गाये हैं। सो कारिका विबुध यांच्छे वास वसुमति ऊपरे श्रीवल्लभकुंवर नी टहल करवा सो श्रीगुसांईजी आप को ऐसो स्वरूप है । और आधिदैविक देवता जो हैं तिनको अधिकार है। सो जव पृथ्वी ऊपर प्रभु प्रगटे हैं तब उह देवता आधिदैविक सेवा के लिये प्रगट होत हैं। तिनके आगें हमारौ अधिकार नाहीं। तातें मेरे मन में बोहोत दिन तेंही, जो- श्रीगुसांईजी के अंत- रंग सेवकन की सेवा मिले। सो कोई दिन तो मेरो जन्म सुफल होइ । सो आजु मो पर भगवान कृपा करी,जो-तुम्हारी सेवा मिली। यह सुनि के चाचा हरिवंसजी कहे, जो - तुम सक्ति .