पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३२०

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स्त्री-पुरुष, आगरे के ३१७ परयो होइ सो वतावो। और अपराध छिमा करि कै मोकों अर्द्धरात्रि के समै दरसन दियो करो । सो मैं तुम्हारो दरसन करि के सोयो करोंगो । सो सगरी रात्रि-दिन तुमही में मन रहे । यह ब्राह्मन-ब्राह्मनी के वचन सुनि कै देवी प्रसन्न भई । कह्यो, तुम्हारो स्नेह हमारे ऊपर वोहोत है। सो तुम सों अप- राध कव हू न होइगो । मैं तुम्हारे चोतरा ऊपर चारि प्रहर रात्रि रही। तव स्त्री-पुरुष ने विनती करी,जो - माताजी! तुम हमारे द्वार पै सगरी रात्रि रही ताकौ कारन कहा ? हमारे घर में क्यों नाहीं आई ? तव.देवी ने कही, जो - श्रीविठ्ठलनाथजी श्री- गुसांईजी के अंतरंग सेवक पांच मथुरा ते आज आये। सो इह चौतरा ऊपर विश्राम रात्रि को किये हे । सो मैं सगरी रात्रि उन पांचों वैष्णवन को पंखा करत ही। सो वे सगरी रात्रि पाळे अव आज्ञा दीनी तव में तेरे पास आइ हों। तातें मैं तेरे पास आइ न सकी। यह देवी के वचन सुनि के स्त्री-पुरुष चक्रत होइ रहे । कहे, माताजी! हम तो यह जानत हते, जो - या जगत में तुम्हारे समान और कोइ नाहीं है । और तुम तो कहत हो, जो-श्रीविठ्ठलनाथजी श्रीगुसांईजी के सेवक की टहल मैं करि आइ हों। ताकौ कारन कहा ? तुम मोकों भ्रम उपजावत हो के साँच कहत हो ? सो मोकों समुझ नाहीं परत । सो मैं तो तुम्हारो दास हूं। तुम विना मैं औरकों नाहीं जानत । और तुम्हारे कहे को मोकों आगे सों विस्वास है । ताते माताजी तुम सांच वात सगरी कहि देहु। यह सुनि के देवी प्रसन्न होइ के कह्यो, जो - हे ब्राह्मन! मैं सत्य कहति हों। मैं तीन कारज में झूठ बोलत नाहीं। झूठ तो या संसार में माया के जीव पडे