पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३५४

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सीताबाई, वडनगर की ३५३ की भई । तब उन को ब्याह एक जाति के लरिका सों भयो। ता पार्छ महिना एक पाछे वह लरिका सीतला के रोग में मरयो । सो सीतामाई ने लौकिक कछ जान्यो नाहीं । सो वह बोहोत ही मुग्ध हूती । घार्ता प्रसंग-१ सो एक समै श्रीगुसांईजी द्वारकाजी को श्रीरनछोरजी के दरसन को पधारे हुते। तव मार्ग में वड़नगर आयो। सो श्री- गुसांईजी ने तहां डेरा किये । तव वह सीताबाई नागर बामनी को श्रीगुसांईजी के दरसन भए । सो दरसन करि कै वोहोत प्रसन्न भई। सो ता समै और हू वैष्णव श्रीगुसांईजी के दरसन को उहां ठाढ़े हुते । सो कोऊ नाम पावत हुतो। कोऊ विनती क- रत हुतो । सो सीतावाई देखे । तव सीताबाई ने हू श्रीगुसां- ईजी सों विनती कीनी, जो-महाराज! मोकों सेवक कीजिए। और सीतावाई की महतारी हती । वाको नाम अचल- वाई हुतो । सो वह वोहोत वृद्ध हती। सोहू सीतावाई के संग हती । सो श्रीगुसांईजी सीतावाई को आज्ञा किये, जो - तुम दोऊ स्नान करि कै आवो। तव सीतावाई और वाकी महतारी अचलवाई दोऊ स्नान कर के आई। तव श्रीगुसांईजी ने उन के ऊपर कृपा करि कै नाम सुनायो । ता पाछे वाकी महतारी नाम पाइवे को वैठी। तव श्रीगुसांईजी श्रीमुख ते महावाक्य अष्टाक्षर मंत्र को उच्चार कियो । सो वह मंत्र तीनि वेर कयो। ता पाठें उन श्रीगुसांइजी सों कह्यो,जो-महाराज ! ऐसी रीति के वचन तो मोकों आवत नाहीं है । तव श्रीगुसांईजी मुसि- क्याय कै उन सों कहे, जो - मेरो नाम तो जानत है ? तव वा वाई ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो-महाराज ! ए तो मैं जानत हूं । ता पाछे श्रीगुसांईजी ने कह्यो, जो - मेरो नाम