पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३५५

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३५४ दोगी पावन येणावन की यार्ना को जप करियो। गर्म वा बाई सों कह । पाठे मब वैष्णवन को जतायो, जो - तुम सब हमारे नाम को सुमिरन मति कग्यिो। काहेतें, जो - तुम को तो अष्टाक्षर को दान किया है । ताते तुम अष्टाक्षर जपियो। भावप्रकाग--यह कहि श्रीगुसांईजी आप अपने नामकी गोप्यता जनाए । सो श्रीगुसांईजी को नाम पग्म फलम्प है। नाने जाको व कृपा करि दान करे वाही कों वा नाम को अधिकार प्राप्न होई । ता पाठे वा वाई ने श्रीगुसांईजी माँ विनती कीनी, जो- महाराज ! हम को निवेदन कराहए। पाठे मेवा पधराइ दीजिए। तव श्रीगुसांईजी ने कृपा करि के उन बाईन को निवेदन कगड़ भगवत्सेवा पधराय दीनी । सो सीताबाई श्रीठाकुरजी को मंदिर वनवाय के श्रीठाकुरजी को पाट बैठाये । सो भली भांति मेवा करन लागी । सो श्रीगुसांईजी वा वाई को सम्बड़ी. अनसम्बड़ी के प्रकार को ज्ञान वताए । और उहां कतेक दिन विराजे। ता पाऊँ श्रीगुसांईजी वा वाई सों विदा होंइ के श्रीद्वारिकाजी कों आए । सो श्रीरनछोरजी के दरसन किये । ता पाउँ उहां केतक दिन रहि के श्रीगुसांईजी श्रीगोकुल पधारे । ता पाठे वा वाई को श्रीठाकुरजी सानुभावता जनावन लागे। और वातें करते । जो चहिए सो मांगि लेते । सो ऐसें करत बोहोत दिन बीते । तव इनकी माता मरी। ता पाऊँ वा वाई की देह हू असक्त भई । सो इन ने हृ देह छोरी। सो समाचार केतेक दिन में वैष्णवन श्रीगुसांईजी के आगे आय कै कहे। तव श्रीगुसांईजी सीता वाईकी वोहोत सराहना किये। और कह्यो, जो - वा बाई को स्वभाव तो बोहोत आछो हतो। जो - कुछ बात में समुझति नाहीं । !!