एक श्रोता-वक्ता, असारवा के ३५५ सो वह सीतावाई और उनकी माता श्रीगुसांईजी की ऐसी कृपापात्र भगवदीय हती। तातें इनकी वार्ता को पार नाहीं। सो कहां तांई कहिए ? वार्ता ॥ १५१ ॥ . अब श्रीगुसांईजी के सेक एक श्रोता, एक वक्ता, दोऊ राजनगर असारखा में रहते, तिनकी वार्ताको भाव कहत हैं- भावप्रकाश-ये सात्विक भक्त हैं । लीला में श्रीचंद्रावलीजी की दोऊ मखी हैं। 'वचनमाधुरो' और 'श्रवनमाधुरी' इन के नाम हैं । सो श्रोता. तो श्रवनमाधुरी है और वक्ता वचनमाधुरी । ये 'ईश्वरी' तें प्रगटी हैं। तातें उन के भांवरूप हैं। ये दोऊ राजनगर असारवा में बनियान के जन्मे । सो दोऊन के घर भाईला कोठारी के घर के पास हते । सो दोऊन की बालपने ते प्रीति बोहोत हुती । सो दोऊ संग रहते। कथा-वार्ता सुनते । पाछे दोऊन की व्याह भयो । ता पायें कछूक दिन में दोऊन के माता-पिता मरे । तब ये भाईला कोठारी के घर जाँइवे लगे । सो भाईला कोठारी दोऊन कों देवी जानि उन पर बोहोत प्रीति करते । नित्य भगवद्वार्ता कहते । सो दोऊन की प्रीति श्रीगुसांईजी के स्वरूप में भई । वार्ता प्रसंग-१ वहोरि श्रीगुसांईजी राजनगर असारवा पधारे तव भाईला कोठारी के घर विराजे। तव भाईला कोठारी के संग तें वे दोऊ जन श्रीगुसांईजी के सेवक भए । नाम-निवेदन पाए । पाछे स्त्रीन कों हू सेवक कराए। सो भाईला कोठारी के घर दोऊ जनें नित्य भगवद्वार्ता सुनिवे कों जाते। सो उहां तें भगवद्वार्ता सुनि कै जब पाछे घर आवते तव ये दोऊ जने मिलि के उहां सुनी होंई सो वार्ता करते । सो वक्ता कहतो, श्रोता सुनतो। पाठे केतेक दिन में ये दोऊ जनें अपनी स्त्रीन कों संग ले के श्री- गोकुल को आए । श्रीगुसांईजी के दरसन किये । तब श्री- गुसांईजी ने इन तें पूछी, जो-वैष्णव । तुम कब आए ? तब इन कही, जो - राज की कृपा तें श्रीनवनीतप्रियजी के राज-
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