३५६ दोगी बावन धणायन की वार्ता भोग के दरसन आय करे । तब श्रीगुसांईजी न उन वैष्णवन पै कृपा करि के कही.जो-महाप्रसाद यहांई लीजो । परि श्री- गुसांईजी भोजन कों पधारे। मो जब भोजन करि चुके तव आचमन करि के वीड़ा आरोगे। गाढी ऊपर विगंजे । ता पाछे उन वैष्णवन ने महाप्रसाद जूंटन लीनो । पाठे पांच मान दिन श्रीगोकुल मे रहि के पाछे श्रीगुसांईजी मो विनती करी, राज की आज्ञा होइ तो व्रजयात्रा करें । तब श्रीगुसांईजी ने कही, जो-आछो, करि आवो। तब वे दोऊ ब्रजयात्रा कर के श्रीनाथजीद्वार आए । श्रीनाथजी के दरसन करि के पाछे फेरि श्रीगोकुल आए । मो श्रीनवनीतप्रियजी के मेन के दरसन किये । पाछ श्रीगुसांईजी कथा कहन लागे । मो इन वैष्णवन श्रीमुख के वचन सुने। पाठे कथा होइ चुकी, नव दोऊ वैष्ण- वन तें श्रीगुसांईजी ने पृछी, जो - वैष्णव तुम कब आए ? तव उन कही, जो - महाराजाधिराज ! श्रीनवनीतप्रियजी के सेन के दरसन किये। पाछे वे दोऊ वैष्णव उठि के अपने डेरा कों गए । पाठे पांच-सात दिन श्रीगोकुल में रहि के पालें वे दोऊ वैष्णव श्रोता और वक्ता इन विचार कियो, जो - ब्रज में कोई एकांत स्थल होंइ तहां चलो। तव वे दोऊ जनें श्रीगोकुल ते चले। और उन दोऊन की स्त्री श्रीगोकुल में रही। पाछे वे दोऊ श्रोता और वक्ता सुंदर एकांत स्थल देखि के उहां बैठे । सो भगवद्वार्ता करन लागें । सो श्रोता सुने और वक्ता कहे । सो दोऊ जने भगवदूरस में लीन भए। सो उनको देहानुसंधान कछु न रह्यो। सो कछ लौकिक संबंधी क्छु देह को बाधा न करें। सो ऐसे करत चालीस दिन विते ।
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