एक ब्रजवासी, एक मोची-बनिया, एक ब्राह्मन ३६५ उज्ज्वलता देखि कै वोहोत प्रसन्न भयो । पाछे इनकों न्हवायो और पूछी, जो - तुम्हारी ईच्छा होइ तो दूधघर की सामग्री लेउ । तब इन ब्राह्मन-चैष्णव कों कछू लौकिक जाति-व्यवहार की सूधि न रही । न जाति पूछी। उज्ज्वलता देखि कै कही, जो-सखड़ी लेउंगो । न उनने इन तें पूछी। पाछे सखड़ी अन- सखड़ी भली भांति सों महाप्रसाद लिवायो । पाठे वीरी ले के ये तो गाम में गयो । मोचो अपनी दुकान पै गयो । पाठे गाम में एक और वैष्णव ने ब्राह्मन वैष्णव कों देखि के श्री- कृष्ण-स्मरन करयो। और पूछी, जो - तुम कब आए हो ? तव ब्राह्मन ने कही, जो-मैं तो सवेरेही कौ आयो हूं। तब इन पूछी, जो-उतारो कहां कियो ? तव कही, जो-अव ताई तो फलाने वैष्णव के घर है । तव कही, जो-चलो! महा- प्रसाद लेउ । तव इन ब्राह्मन ने कही, जो - उनके घर महा- प्रसाद लियो। तव उन वैष्णव ने कही, जो-तुम तो ब्राह्मन हो और वे तो मोची है, जोड़ा को व्योपार करतो। अव सेवक भयो है। तब तें कपड़ान की दुकान कीनी है । तव' यह सुनि के इन ब्राह्मन के मन में ग्लानी आई । सो संदेह होत मात्र कपाल में सुफेद कोढ़ निकस्यो । तव उन कही, जो - संदेह कियो तातें यह कोढ भयो। पाठे विचार कियो, जो-अव तो श्रीगुसांईजी के पास जानो। वे कृपा करेंगे तब आछो होइगो । पाछे वह ब्राह्मन वैष्णव श्रीगुसांईजी के पास आयो । सो श्री- गुसांईजी को दरसन कियो । पाठे विधिपूर्वक सब समाचार श्रीगुसांईजी के आगे कहे । तव श्रीगुसांईजी ने कहीं. जो तेने संदेह कियो तातें यह कोढ़ भयो । अव व्रज-परिक्रमा.
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