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पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३७०

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एक बनिया, एक ब्राह्मन, जानें देवी के किवाड़ उतारि लिये ३६९ भए पाऊँ मध्यरात्रि कों वैष्णव आवते तो वाही समै रसोई करि के पुस्तक को भोग धरि कै वैष्णवन को महाप्रसाद लिबावते । सो एक दिन वर्षा भई। सो उपरा लकरी सब भीजि गए। और रात्रि घरी चारि गई। तव अचानक वैष्णव आए । तव उन बनिया-वैष्णव ने स्त्री सों कही, जो न्हाय कै सामग्री र- सोई सिद्ध करो । तब उन स्त्रीने कह्यो, जो - उपरा लकरी तो सव भीजि गए हैं। सो कैसे रसोई करें ? सो तुम जाँइ कै कहूं ते सूकी लकरी ले आवो तो रसोइ सिद्ध करूंगी। तब वैष्णव ने कही, जो - या समै रात्रि को लकरी कौन पै तें ले आउं ? परंतु तुम सामग्री काढ़ि के स्नान करो। तैयारी करो। मैं जाऊं हूं । पाछे वैष्णव कुल्हारी वगल में ले के गाम तें वाहिर निक- स्यो। सो एक देवी को मंदिर हतो तामें दोइ किवाड़ लगे हते । सो यह वैष्णव जाँइ के सांकरि खोलि के एक किनार उतारि, फारि कै, पिछोरी में वांधि कै ले आयो । सो अपुनी स्त्री को दीनी । तव वा स्त्रीने कही, जो - या समै सूकी लकरी ऐसी कहाँ ते ल्याए ? तव वा वैष्णव ने कही, जो-मैं तो देवी कौ किवार उतारि के ले आयो, फारि-तोरि के लकरी करि ल्यायो । परि काहू सों कहियो मति । ता पाछे रसोई करी। तब रसोई सिद्ध भई । तव भोग धरि के वैष्णवन को महाप्रसाद लिवायो। पाठे भगवद्वार्ता-कीर्तन किये । पाछे विछोना करि के वैष्णवन को सुवाय कै आप सोय रहे । सो उन बनिया चेष्णव की श्रीठाकुरजी पै तथा वैष्णव पै ऐसी वात्सल्यता हती । पाठे सवेरो भयो। तव दोऊ स्त्री-पुरुष सेवा में न्हाए। मंगला सिंगार करि कै राजभोग समर्पे । समय भए भोग सराय के आर्ति १७