पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३९

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३० दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता . भावप्रकाश—यहां यह संदेह होई, जो- पुष्टिमार्ग में तो सत्र कार्य कामना रहित व्है करिवे को को है। तातें फल की ईच्छा तो इहां है नाहीं । तब या वैष्णव फल देन की नाहीं क्यों कियो ? तहां कहत हैं, जो- कीर्तन को फल तो महा अलौकिक है । ता करि साक्षात श्रीगोवर्द्धनधर की प्राप्ति होत हैं । सो लीला सहित प्रभु हृदय में आय रहत हैं। ऐसो फल या राक्षस को कैसे दियो जाय ? काहेतें ? यह दैवी तो है नाहीं । तातें नाहीं कियो । तव वा राक्षस ने कह्यो, जो - वैष्णव ! मोकों पांच ताल कौ पून्य तो देऊ । ताही समै आकास-वानी भई, जो वैष्णव तुम तो हरिजन हो । तातें दया करि याकों पांच ताल कौ पून्य दीजिए।। तातें याकी गति होइ । याकों तुम्हारे वैष्णव के दरसन तें यह ज्ञान भयो है । तव कुनवी वैष्णव ने तलाव में तें जल ले कै वा राक्षस के हाथ में दियो। और कह्यो, जो - मैंने तोकों पांच ताल को पून्य दियो । सो इतनो कहत ही वा राक्षस की देह छूटी । प्रेत योनि तें मुक्त भयो। ता पाछे स्वर्ग ते विमान आयो। तब वह राक्षस सुंदर दिव्य देह धरि कै वा कुनवी वैष्णव की परिक्रमा करि पाँवन परि कै वा विमान में वैठि कै स्वर्ग को गयो । सो भगवदीय कौ ऐसो ही प्रताप हैं । पाछे वह पटेल अपने घर आयो। भावप्रकाश-सो या वार्ता में यह जतायो, जो - वह कुनवी वैष्णवे सत्संग के लिये इतनी दूरि आवतो । सो सत्संग ऐसो पदार्थ है । तातें भगवदीय वैष्णव को संग अवस्य करनो । जातें धर्म की हानि कबहू न होई । सो वह कुनबी वैष्णव श्रीगुसांईजी को ऐसो कृपापात्र भगवदीय हतो। तातें इनकी वार्ता कहां तांई कहिए । > वार्ता ॥९॥