४१० दोगी वाचन वैगन की वार्ता करि खाँतो। और मन में अहर्निग यही कह. जा - देवों. श्रीगुसांईजी मेरो कैग उद्धार करत है ? lai gan सो एक राजा और कोई देश में रहत हुनो । मो वाके गलित कोढ़ हुतो । सो वा राजा ने अनेक औपधि कीनी, परि वाकौ कोढ़ न गयो । तव काह ने कही. जो - तुम तीर्थयात्रा करो तो तुम्हारो कोढ़ जाँड । और लाग्यन रुपया बचें परि वाकौ कोढ़ न गयो । तब उह राजा नीर्थ यात्रा कग्वेि निकस्यो । सो तीर्थयात्रा करत करत कतेक दिन में श्रीगोकुल आयो । परि यात्रा करि के हवाको रोग न गयो। मा तव वा गजा ने श्रीगुसांईजी के दरसन किये । सो दरसन करि के विनती कीनी. जो - महाराज ! मैनें लाग्यन रुपैया बरचे और सब तीर्थन में स्नान किये । परि मेरो रोग न गयो । और आप ईम्बर हो । सो यह विचारि के मैं आप के पास आयो हुँ । सो आपु मेरो रोग न खोवोगे तो मेरो रोग और कौन खोवेगो ? तातें आपको छोरि के और कौन के पास जाऊं ? सो ऐसी वा राजा की दीनता देखि के श्रीगुसांईजी आप तो परम दयाल सा आना किये, जो - यह तेरो रोग तो यहां स्मसान में हमारी सेवक रहत है, सो उनके पास जाँई के उनकी जूंठनि ले के खाईयो तव तेरो रोग जाइगो । परि उह वैष्णव जूंठनि देइगो नाहीं । तातें तू जोरावरी सों लीजियो । मन में ग्लानि मति ल्याइयो। तव उह राजा आप की आज्ञा प्रमान स्मसान में जाँई के वा वैष्णव सों जूंठनि माँगी। सो वाने न दीनी । तव वा राजा ने जोरावरी ले के खाई । सो जूंठनि भीतर गई । तव तत्काल
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