एक चूहडा, श्रीगोबर्द्धन को यह इतनो मार खायो है, सो तो अपराध को दंड भयो है । और कह्यो. जो-याकों पूर्व जन्म में काऊ वैष्णव श्रीनाथजी के दरसन की पूछतो, सो यह वाकों तामस करि के उत्तर देतो। या अपराध तें यह इतनो मार खायो है । परि अव याकों कछु वाधक रह्यो नाहीं है । सो अव यह श्रीगोवर्द्धननाथजी के चर- नारविंद में लीन भयो । याही तें वैष्णव कों विचारिकै वोलनो। जैसे उज्ज्वल वस्त्र होइ सो तुरत ही दाग लागत हैं और मलीन कों दाग नाहीं है । ऐसें आपन वैष्णव प्रति कह्यो । सो ऊह रूपा पोरिया श्रीगुसांईजी को ऐसो परम कृणा- पात्र भगवदीय हतो । तातें इनकी वार्ता को पार नाही, सो कहां तांई कहिए ? वार्ता ॥१६६॥ अब श्रीगुसांईजी को सेधक एक चूहडा हतो, सो श्रीगोबर्द्धन में रहतो, तिनको वार्ता की भाव कहत हैं भावप्रकाश-ये तामस भक्त हैं। लीला में इन को नाम 'वन-रानी' है। ये 'कुसुम' बन में रहति हैं । सो ये पुलिदिनी के यूथ में हैं। ये 'रसात्मिका' तें प्रगटी हैं, तातें उन के भावरूप हैं । सो एक समै श्रीठाकुरजी आप गाइ चरावन को सरवान सहित वन में पधारे हे । सो एक गाँई टोला में सों विछुटी । सो कुसुम बन में गई । सो श्रीठाकुरजी ने जानी । तर सखान को कहे. जो • तुम यहां गाँडन को देखत रहियो । मैं अब ही वा गाँइ को ले कै आवत हूं। यह कहि आप तो कुसुम वन में पधारे । नहां वनरानी को श्रीठाकुरजी के दरमन भए । ता ममें वन-रानी ने विनती कीनी, जो - महाराज ! मैं आप के लिये बोहोन दिनन ते या बन को सेवन करति हूं । सो आज आप एकांत में मोकों मिले हो । तातें आप ये बन के सुंदर फल-फलादि आरोगिए । और मेरो मनोरथ पूग्न कीजिए। तब श्रीठाकु- रजी कहे, जो - मोकों अवेर होडगी तो यहां मत्र मग्या आयेंगे. इंदन को । तातें तू मोको रोके मति । और 'श्यामलाजी' हैं याही वन में हैं। ताने वे जाने तो हू ठीक नाहीं। या प्रकार श्रीठाकुरजी बनगर्ना को समझाय कहे । परि
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