पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

एक चूहडा, श्रीगोवर्द्धन को ४२५ राज ऊपर मंदिर में गए। सो उहां देखे तो पिछली ओर मोखा है। तव सव महा सोच करन लागे । ता पाछे भीतरिया ने सव वस्तु श्रीगोवर्द्धननाथजी की देखी। सो सव वस्तु श्रीगो- वर्द्धननाथजी की ज्यों के त्यों हैं । तव ए समाचार भीतरिया ने श्रीगुसांईजी सों कहे । जो - महाराजाधिराज ! आज श्री- गोवर्द्धननाथजी के मंदिर के पिछवारे काहू ने मोखा कीनो है । यह सुनि के श्रीगुसांईजी आप महा खेद करन लागे । सो यह वात चूहडा ने सुनी। सो श्रीगुसांईजी की बैठक के द्वारे आइ के चूहडा ने श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो- महाराज! इन सवन को दूरि करो तो एक बात कहनी है। तव श्रीगुसांईजी ने कह्यो, जो - कहो ! कहा कहत है ? तव वा चूहडा ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराज! आज आप अनमने से क्यों हो ? तव श्रीगुसांईजी कह्यो, जो - आज श्रीगोवर्द्धननाथजी के मंदिर के पिछवारे काहू ने मोखा कीनो है। तातें हम तो उदास है । तब श्रीगुसांईजी सों वा चूहडा ने विनती करी, जो - महाराजाधिराज ! ऐसी वातन को आप भले उदास वैठे हो ? तुम अपने लरिका की सुभाव जानत नाहीं ? जो- आज काहू कार्यार्थ मैं गोवर्द्धन गयो हतो। ता पाछे द्वार पै आय के देख्यो तो तारा-मंगल है । पाछे मंदिर के पिछवारे परयो रह्यो । सो मोकों विरह-ताप वोहोत भयो । सो ताही समे श्रीगोवर्द्धननाथजी हाथ में लकु- टिया ले के मोखा कियो । पाछे मेरो नाम ले के पुकारं । सो मैं अरवराय के उठि वैठयो। और अपने मन में विचार कियो, जो - श्रीगोवर्द्धननाथजी पुकारत हैं। तब फेरि कयो, तू दर-