४२६ दोमो बारन वणन की वार्ता सन करि । तब मैंने दरसन किये । और श्रीगावद्धननाथजी श्रीमुख तें कहे, जो - लडुवा तृ ग्वाय ले । मा एक लड़वा तो मैनें खायो है । और एक मेरी चादर में बंन्यो है । ता पाठे, वा चूहडा ने कह्यो. जो - महाराज ! आप गेमी बात में भले उदास बैठे हो। तव श्रीगुसांईजी आप ऐसे बचन सुनि के वोहोत प्रसन्न भए । तब श्रीगुसांईजी पोरिया, झापटिया को बुलाय के कह, जो - यह इहडा कवह दरगन विनु रहि न जाँइ । और चूहडा आठों बेर जब आवे तव दरसन करवाय दियो करो। सो सबन ते पहिले वा चूहडा की दरसन करवाय देते । ता पाछे दूसरे दिन कारीगर बुलाय के वा मोग्या को मुंदन लागे। तब श्रीगोवर्द्धननाथजी आज्ञा किये, जो - यह मोखा तुम मति मूंदो । ऐमेही रहन देउ । ता पाछे वेमेही रहन दियो । सो अव हु श्रीगिरिराज पर मोखा है । भावप्रकाग-या वार्ता में यह जतायो, जो - जाको प्रेमभक्ति म्फूर्त भर्ट होई ताके विपे ज्ञाति-मर्यादा तथा और हु मर्यादा रहन नाही । यो जीव को श्रीगुसांईजी को दृढ आश्रय होई तब ऐसा प्रेम म्फुर्त होई । ताने वैष्णव को श्रीगुसांईजी को दृढ आश्रय कर्तव्य है । सो वह चहडा श्रीगुसांईजी को ऐसो कृपापात्र भगवदीय हतो । सो वाकों श्रीगुसांईजी की कृपादृष्टि ते प्रेम स्फुर्त भयो हतो । तातें श्रीगुसांईजी वासों मर्यादा राखे नाहीं। सो इनकी वार्ता कहां तांई कहिये। वार्ता ॥१६७॥ . अब श्रीगुसाईजी के मेवक स्त्री-पुरुप राजनगर में रहते, जाके पेमा की गिनती में पांच रत्न निकसे, तिनकी वार्ता को भाय कात है- भावप्रकाश-ये सात्विक भक्त हैं । लीला में 'पीतवर्णी', 'कुंकुम्वर्णी दोऊन के नाम हैं । सो पीतवर्णी तो यहां पुरुप भयो और कुंकुमवर्णी स्त्री भई । ये दोऊ ' रसात्मिका ' तं प्रगटी हैं, तातें उनके भावरूप हैं।
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