पं० पद्मसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम १०३ मुद्दत से उन्माद रोग में ग्रस्त हैं। यह रोग शायद उन्हें अपनी विदुषी कन्या के बेवक्त मौत के सदमे से हुआ था। “नरंगेखयाल" भी उनकी अपने ढंग की अपूर्व पुस्तक है । मैं उसे 'दीवानेहाली-मुसद्दसे हाली' आदि किताबों के साथ आपके पास अनकरीब भेजनेवाला हूँ। हाँ, 'फिलसफेतालीम' के साथ आपने लखनऊ के विषय की कोई किताब मंगाई थी जो उस समय नहीं मिल सकी थी। क्या वह अब आ गई ? उसका विषय और नाम क्या है ? क्या स्वाधीनता' और विक्रमांकचर्चा साथ ही साथ नागपुर से निकलने लगी है ? नागपुरवाली सभा का पता क्या है ? . कुछ दिन हुए 'विद्योदय' में 'परम हंसोपाख्यान' नाम से पद्य स्वरूप, मि० मारनल के 'दि हरमिट' का अनुवाद निकला था जो बहुत ही मनोहर और शिक्षाप्रद था। उसकी कथा का सारांश 'शिक्षागुरु में ला० श्रीनिवासदास ने भी किया है। क्या 'एकान्तवासी योगी' उसी निबन्ध का अनुवाद है ? या यह किसी दूसरे हरमिट का? नैषध के उस 'स्त्रियामयावाग्मिषु', श्लोक में 'प्रबन्धता' और 'प्रतिबन्धृता' ही पाठ चाहिए। नारायण ने लिखा है--"उभयत्रापि तृजन्ताच्छन्धेस्तलम्।" ___मैं एक दिन नैषध देख रहा था, उसमें जब 'प्रियंनमृत्यु नलभेत्वदीप्सितं तदेव नस्यान्ममयत्वमिच्छसि। वियोगमेवेच्छमनः प्रियेण मे तव प्रसादानभवत्वसौ मम ॥" इस श्लोक पर पहुंचा तो मुझे उर्दू के मशहूर कवि मोमिन' का एक शेर याद आ गया जो बिलकुल इससे मिलता जुलता है- 'मांगा करेंगे अब से दुआ हिजेयार की, आखिर तो दुश्मनी है दुआ को असर के साथ यह भारतमित्र में चेंचे करनेवाले जयपुरी चौबे कौन हैं ? इन रक्तबिन्दु के सहोदरों का कभी अन्त भी होगा? कमबख्त कान खा गये। . प्रतापनारायण की जीवनी से हमने तो यह समझा कि वह एक अच्छे विदूषक थे। अब हम एक हफ्ते के लिए सिकन्दराबाद-बुलन्दशहर की ओर जाते हैं। वहां से लौटकर फिर आपसे भेंट करेंगे। कृपाकांक्षी पद्मसिंह
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