पं० पसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम १०९ 'शूद्रक' (मृच्छकटिक कर्ता) और 'मोमिन' की उन उक्तियों में वर्णन का एक प्रकार का अपूर्व सादृश्य पाया जाता है। भेद केवल इतना है कि शूद्रक ने (चार- दत्त द्वारा) दारिद्रय को सम्बोधन करके कहा है, और मोमिन ने 'शबेहिजरां' (वियोगरात्रि) को मुखातिब किया है। आत्मप्रशंसा निषेध में किन्हीं दो संस्कृत कवियों का और एक फारसी शाइर का मीलान देखिए, मानो एक ने दूसरे का अनुवाद किया है- "न सौख्यसौभाग्य करा गुणा नृणां, स्वयंगृहीताः सुदृशा स्तना इव। परैर्गृहीता द्वितयं वितन्वते न तेन गृह्णन्ति निजंगुणं बुधाः।" "निजगुणगरिमा सुखाकरः स्यात् स्वयमनुवर्णयतां सतां न तावत्। निजकरकमलेन कामिनीनां कुचकलशाकलनेन को विनोदः॥" "सतायश् खुदब खुदकरदन् न जेबद मर्दै दानारा, चुज न पिस्ताने खुदमालद हजूजे नफ्स के याबद॥" वह नोट आपने लिख लिया, बड़ी कृपा की। इन उक्तियों की भी अपने नोट के साथ किसी अंक में प्रकाशित कर दीजिए। या इन सबको एक साथ किसी संख्या में निकाल दीजिए। बहुत अच्छा जाइए। आमों की फसल का आनन्द लीजिए पर कृपापत्र भेजते रहिए। कृपाभिलाषी पद्मसिंह (२५) ओम् नायकनगला ७-८-०६ श्रीमत्सु सादरं प्रणतयः। २६-७ के दो कृपाकार्ड मिले, आनन्दित किया। मेरी १ वर्ष की लड़की अर्से से बीमार चली जाती है, उसके औषधोपचार से अवकाश नहीं मिलता, इसीलिए पत्रोत्तर में बिलम्ब हुआ। ____ जून की 'सरस्वती' आपकी भेजी मिली, धन्यवाद । कई बार की लिखा पढ़ी में एक दूसरी कापी प्रेस से भी पहुंच गई है, इसलिए एक कापी आपको लौटा दूंगा।
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