पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१३२

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पं० पद्मसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम "अर्थतत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्य तो दृष्टं च" यहां भी इन्होंने 'अचला की चाल' का अनुमान किया है, और वात्स्यायन से 'आदित्य की व्रज्या' का यह भेद है। शंकर जी के प्रतिभाशाली सुकवि होने में कुछ सन्देह नहीं, इतना लिखने पर 'सरस्वती' ने दर्शन दिये, पत्र अधूरा ही छोड़कर उसे पढ़ना प्रारम्भ किया, जब तक दो आवृत्ति न हो चुकी, तब तक तृप्ति न हुई। मैं आगे लिखने को तो कुछ और था पर अब 'सरस्वती' के विषय में ही कुछ निवेदन कर लूं। शंकर जी की तारा ने तड़पा दिया! उन्होंने तो 'दुबारा' ही पढ़ने की ताकीद की थी। परन्तु न मालूम हम उसे कै बार पढ़ गये, तथापि तृप्ति न हुई, क्या अपूर्व उपमाएँ और कैसा सरस वर्णन है, यदि कवि जी समक्ष हों तो सहस्र मुख से प्रशंसा करें, यही जी चाहता है, चित्र सम्बन्धनी कविता की ड्यूटी उन्हीं के सुपुर्द कर दीजिए। 'खगोल विज्ञान' बहुत अच्छा है, हिन्दी जाननेवाली पबलिक पर 'सरस्वती' वह अहसान कर रही है जिसकी नजीर मिलना मुशकिल है। बेचारे हिन्दी वालों को ऐसे सुन्दर सचित्र लेख कहां पढ़ने को मिलते हैं !! ___ 'भद्दी कविता' पर आपने सभा की खूब भद्द उड़ाई है ! इतने पर भी सभा की आँखें न खुलें तो लाचारी है। 'शरद' भी खासी है, पर कवि ने कहीं रामायण की छाया ली है, कहीं अनुवाद ही कर दिया है। दूसरा पद्य देखिए इसका अनुवाद है कि नहीं:- "दर्शयन्ति शरनद्यः पुलिनानि शनैः शनैः। नवसंगम सव्रीड़ा जघनानीव योषितः।" खैर! 'टेसू की टाँग' आपने खूब तोड़ी है ! उसमें आपने अंग्रेजी शब्द अच्छे खपाये है, उत्तर भी ऐसा मिला है कि टेसू जी भी क्या याद करेंगे, क्या समचमुच दीन- दयालु के साथ टेसू जी भी 'रास' में नाचे हैं ? । ___'सरस्वती' में एक बात देखकर हमें आन्तरिक दुःख हुआ, वह 'नर पिशाच' 'कादियानी' का अपवित्र चरित्र । सबसे अधिक आश्चर्य इस बात पर है उसे एक हिन्दू ने लिखा है, कहीं इन्हें (महेन्दुलाल या भोंदू'लाल को) कादियानी ने रिश्वत देकर यह लीला नहीं कराई ! क्योंकि वह ऐसे ही हतखंडों (हतकंडों' सं०) से प्रसिद्ध हुआ है। वह इसी प्रकार अमेरिका के पत्रों तक पहुंचा है। कुछ हो, 'सरस्वती' जैसी पवित्र पत्रिका में इस पापात्मा राक्षस राज का चरित नहीं छपना चाहिए था, क्योंकि- १. क्षमा कीजिए, यह काम इसी नाम के अनुरूप है।