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पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१६१

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पं० पसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम १४७ इसमें जो लड़ते पद है इसे नेत्रों का विशेषण मान कर ही लल्लूलाल तथा हरिचरणदास ने 'लाडले' अर्थ किया है। अर्थात् तैने अपने नेत्र कैसे लाड़ले किये हैं जो श्रीकृष्ण अचेत पड़े हैं।......... इसमें उन्होंने व्याजस्तुति अलंकार माना है। पर नेत्रों का 'लाडले' होना कृष्ण के अचेत होने में साधक है न बाधक । इसलिए यदि यहां 'लड़ते" का अर्थ लड़त-लड़ने वाले किया जाय तो कैसा? ___अर्थात् तैने अपने नेत्र कैसे लड़नेवाले किये हैं (जिनकी चोट खाकर) कृष्ण अचेत पड़े हैं। इत्यादि, ____ कृष्ण का अचेत होना आदि नेत्रों के लड़ते होने का समर्थक है, इसलिए यह अर्थान्तरन्यासालंकार भी हो सकता है। आपकी इसमें क्या राय है? ऐसा करने से दाषाच्युत तो न हो जायगा? हिंदी में तो ऐसे शब्द आते हैं जैसे, 'वह बड़ा लईत है, वह लठैत है। आंखों का लड़ना भी प्रसिद्ध है, मोमिन का एक शेर है- "दिल गया दम पर बनी आंखें लड़ी कहती हैं हाल। बेकरारी आहो जारी अश्क बारी आपकी॥" मनोरंजक श्लोक भो हेरम्ब। किम्ब ! रोदिषि कथं? कर्णालुठत्यग्नि भूः। किन्ते स्कन्द ! विचेष्टितं! मम पुरा संख्या कृता चक्षुषाम् ।। नैतत्तेप्युचितं गजास्य चरितं नासां मिभीतेऽ म्ब! मे। मा मामेतिसुतौ विलोक्य हसती पाया द पाया दुमा। कवित्त एक रदन ! 'केहिकारन रुदन, षटवदन करन मेरो ऐंठे ऐंठ देत है। क्यों रे महासेन! तोहि ऐसो-हिउचित अंब अंगुलि से बार२ नैन गिन लेत है। क्यों रे वक्रतुंड! तोहि ऐसोहि स्वभाव, अंब इसे मेरी नाक मामने से होन हेत है। मतमत कर जो हंसी है सम दृष्टि लिये भैरव सहाय सो तो शंकर समेत है" पद्मसिंह शर्मा