पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१९

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द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र (३) झांसी २४-२-०३ प्रिय महाशय ___ आपका अत्यन्त स्नेहसूचक पत्र आया। आपने जो कुछ हमारी प्रशंसा की उसके हम पात्र नहीं। यह आपके स्नेह-आपकी कृपा ही का फल है जो आप हमें ऐसा, समझते हैं। 'सरस्वती' की जो भूलें आपने दिखाई उनके लिए हम कृतज्ञतापूर्वक धन्यवाद देते हैं। आपकी दिखाई हुई अनेक भूलें ठीक हैं। परन्तु पत्र द्वारा उन सबका विवे- चन हमसे नहीं हो सकता। होने की आवश्यकता भी तादृश नहीं है। हमारे सदृश अल्पज्ञों से यदि भूले हों तो कोई आश्चर्य की बात भी नहीं। हिंदी का कोई सर्वसम्मत व्याकरण नहीं है। व्याकरण के बनानेवाले हमारे आपके सदृश ही सामान्य जन थे। अत: हिंदी लेखप्रणाली में किसके किए हुए नियम माने जायं? किया का बहुबचन किये ठीक ही है। परन्तु स्वर स्वतन्त्र हैं, व्यंजन अस्वतन्त्र। इसलिए उच्चारण के अनुसार यदि किये भी लिखा जाय तो हो सकता है। हम तो दोनों लिखते हैं। जैसा जहां कलम से निकल जाय। __हिंदी लिखने में उर्दू-फारसी के शब्द आवे तो हम कोई हानि नहीं समझते। कोई-कोई उर्दू के शब्द अधिक बोलचाल में आते रहने के कारण अधिक सरल और अधिक बलपूर्ण हो गए हैं। सम्मति से सलाह ही अधिक सरल है। धूल में मिला देने की अपेक्षा खाक में मिला देना कहने ही में अधिक बल है। अपना मत हमने आपकी आज्ञा के अनुसार लिख दिया। संभव है, आपका ही मत ठीक हो। सबके विचार पृथक्-पृथक् हुआ करते हैं। ' जैसी कृपा है, वैसी ही बनाए रखिएगा। यही प्रार्थना है। आपका महावीरप्रसाद द्विवेदी