१७८ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र (७८) ओम् महाविद्यालय ज्वालापुर २५-५-१० श्रीयुत मान्यवर पंडित जी महाराज प्रणाम कृपामय कुशल पत्र मुद्दत से नहीं आया। यह समझ कर कि पत्रव्यवहार द्वारा आपकी विश्रान्ति और सेहत में खलल डालना ठीक नहीं, प्रबल इच्छा होते हुए भी किसी प्रकार मैं अपने आपको इतने दिनों तक रोके रहा, पत्र भेजकर श्रीमान् को कष्ट नहीं दिया। यद्यपि बीच बीच में श्री शुक्ल जी के पत्रों से कुछ कुछ आपका समाचार मिलता रहा, किंतु केवल उतने से संतोष कहां! चाहे कुछ हो, कभी कभी पत्र भेजने का अनुग्रह तो अवश्य करते रहिए, यदि पत्रव्यवहार से आपका अस्वास्थ्य बढ़ता है तो पत्र न मिलने से हमारी चिन्ता बढ़ती है, हिसाब बराबर है। प्रायः मिलनेवाले महाशय जब कभी आपका समाचार पूछते हैं तो 'अर्से से पत्र नहीं आया' कहकर उन्हें टालना पड़ता है। शुक्ल जी के (सरस्वती में) लेखानुसार आशा है आपका स्वास्थ्य अब अच्छा होगा। 'सरस्वती' को आप अब कबतक संभालेंगे? इस आराम के जमाने में किसी नई पुस्तक के लिखने में तो नहीं लगे रहे? आपका सर्वथा खाली बैठे रहना तो कुछ असंभव सा ही है। क्या अबकी गरमियों में इधर न आइएगा, आप आवे तो मसूरी चलें। ____ नया 'भारतोदय' भेजता हूँ, थोड़ा थोड़ा करके सब देख जाइए। उत्सव वृतांत्त, कान्स्टिट्यून विल्ला०, वेदों का संशोधन, महात्माजी की उदारता, सबमें कुछ न कुछ मनोरंजन मसाला पाइएगा। तफरीह हो जायगी। महात्मा पुरुषों का चरित्र सुनने से कष्ट दूर हो जाता है, अबका भारतोदय 'महात्मा' के महनीय चरित्रों से भरा हुआ है, इसलिए मैं उसके पढ़ने की आप से सिफारिश करता हूँ। ___इसी पत्र में 'शिक्षा' की समालोचना करने की चेष्टा की है। उसमें मैं एक गुस्ताखी कर बैठा हूँ। उसके लिए 'बसदअदब वहां भी माफी मांग ली है, फिर भी मांगता हूँ। आशा करता हूँ कि श्रीमान् के. उदार दरबार से माफ कर दिया जाऊंगा। संस्कृतोद्धार के व्रती महाविद्यालय के मुखपत्र भारतोदय' को जो कुछ
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