बालमुकुन्द गुप्त जी के पत्र पं० श्रीधर पाठक जी के नाम २०९ की कविता पर लोग आक्षेप करें तो कवि कहां तक उनका उत्तर देता फिरेगा? मेरा मतलब यह है कि इस प्रकार का उत्तर देने से आपकी बड़ाई में कुछ फर्क आता है। मेरे खयाल में तो सुदर्शन ने आपकी पूरी पूरी स्तुति की है, निन्दा नहीं की है और हेमन्त काव्य की भी निन्दा नहीं की। उस पर अपनी राय जाहिर की है। उचित समझकर इतनी विनय आपसे की है। भवदीय दास बालमुकुन्द गुप्त (८) कालाकांकर २०-३-०९ पूज्यवर प्रणाम १६ तिथि का कृपापत्र आया। कृतज्ञ हुआ। कल्ह सारसुधानिधि को चन्द्रिका समेत भेजा है। उसने कुछ बुरा नहीं लिखा। मैंने चाहा था कि वह अपने एडी- टोरियल में लिखे सो न किया और मेरे ही लेख से सहमत हो गये। और कृपानाथ जिस प्रकार अनुत्तम वस्तु की प्रशंसा करना बुरा है, उसी प्रकार उत्तम वस्तु की अप्रशंसा भी तो महाअन्याय है। इससे यदि कोई कुछ छपवाता तो अवश्य उत्तर पाता। बाबू अयोध्याप्रसाद की बाबत जो आपने लिखा ठीक है। मैंने पहिले ही उसे गप्प समझा था और अब तो उनका लिखना लाभकारी भी हुआ कि मुझे मेरी A.B.C. के लिये प्रशंसा मिली। परन्तु दीनदयालु पं० मदनमोहन, पं० श्रीधर पाठक, पं० प्रताप नारायण की ओर से मुझे शाबाशी या धुरकी मिलना वैसा ही है जैसा पिता की ओर से प्यार या धमकी इससे किसी के लिखने से क्या है ? सेवक बालमुकुन्द गुप्त (९) गुरियानी ३१-३-१९०० पूज्यवर प्रणाम हां, सुदर्शन संपादक मेरे मित्र हैं और इसीसे आपके भी परम भक्त हैं। आपके कोमल या कठोर सब शब्द ही फूल समान हैं। उसकी आप कुछ परवा न करें।
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