द्विवेदी जी के पत्र 'जनसीदन' जी के नाम (१०) दौलतपुर १८-१-०४ प्रियवर कृपापत्र मिला। आज से आप हमको जुही कानपुर के पते से पत्र भेजिएगा। शिक्षाशतक के शेषांश की पहुंच हम भेज चुके हैं। बहुत अच्छा, आप यथा- वकाश प्रार्थनाशतक वगैरह को समाप्त कीजिएगा। कोई जल्दी नहीं। तबतक शिक्षा को छपने दीजिए। ___ दीनबंधु का चरित छप गया। हम प्रूफ देख चुके । परन्तु हमको उसके लिखने का तर्ज पसंद नहीं। ____ आपने हमारे विषय में राजासाहब को क्यों तकलीफ दी। ऐसा करने के लिए हमने तो आपसे प्रार्थना नहीं की हमको जो जानते हैं या हमपर जिनका स्नेह है हम उनकी केवल कृपा के भिखारी हैं। तृणादपि लघुस्तूलः इत्यादि का स्मरण हमको हमेशा रहता है। इसलिए हमने याचकवृत्ति नहीं स्वीकार की। परन्तु ईश्वर की लीला समझ में नहीं आती। यदि ऐसा ही समय आया तो जिनका सालाना हिसाब रहता है और जिनको राज्यसम्बन्धी कम झमेले रहते हैं, पहले उन्हीं से याचना करेंगे। यों तो ब्राह्मण जन्म से भी और परंपरा से भी भिखारी है। परन्तु ब्राह्मण के एक भी लक्षण हमारे नहीं। अतः किस बल पर हम प्रतिग्रह का साहस करें। धृष्टता माफ कीजिए। भवदीय महावीरप्रसाद द्विवेदी (११) २-४-०४ प्रिय पंडित जी कृपापत्र आया। २२ ता० का लिखा हुआ कल मिला। हम श्रीमान् की कृपा, श्रीमान की प्रीति के भूखे, नहीं ऋणी हैं-नये पुराने का हमको जरा भर भी खयाल १. मूल में जुही और कानपुर रोमन में भी था। किन्तु उसे देना हमने अना. वश्यक समझा।-संपादक
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