पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७८ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पंत्र आपने बहुत ही अच्छा किया जो 'लिबर्टी' का अनुवाद कर दिया, उसका अनु- वाद उर्दू में तो (सुना है) हो चुका है। बेचारी दुखिया हिन्दी को उर्दू के सामने मुंह दिखाने योग्य आपही का शुभोद्योग बना दे तो बना दे, और लोगों का तो इधर ध्यान ही नहीं। परमात्मा आपको पुरुषायुष जीविता से भी अधिक आयुः प्रदान करे। पं० जी! इस समय उर्दू के पक्षपाती बड़े घोर परिश्रम के साथ काम कर रहे हैं। उन्होंन उर्दू को बड़े ऊंचे आसन पर बिठला दिया है, कोई आवश्यकीय विषय ऐसा नहीं जिसकी दो चार पुस्तकें उर्दू में न हों, पर हिन्दी में क्या है ? वही रद्दी उपन्यास या और कुछ भी। न मालूम हिन्दी हितैषियों का ध्यान किधर है, जो अपने औचित्य को नहीं समझते। उर्दू को मुकाबले का चैलेन्ज और यह बेपरवाई! "विधाय वैरं सामर्षे नरोऽरौ य उदासते। प्रक्षिप्योदचिषंकक्षेशेरतेऽभिमारुतम् ॥" कृपया अपने रचित, अनूदित और संकलित सब पुस्तकों का एक सूचीपत्र भेजने की कृपा कीजिए। "अर्थाहरणकौशल्यं किं. स्तुमः शास्त्रवादिनां। अव्ययेभ्योपि ये चार्थान् निष्कर्षन्ति सहस्रशः।" श्रीमद्दयाभाजनम् पद्मसिंह श० ( ३). • ओम् एस० डी० पी० प्रेस जलंधर सिटी . १२ जुलाई ०५ श्रीमत्सु अलौकिक प्रतिभासंपन्नकविकुंजरेषु सांजलिबन्धे प्रणतिकदम्बाः। भगवन् ! ____ आपके पुस्तक रत्न पहुंचे। मैं इस अवसर पर सचमुच किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ। अर्थात् नहीं जानता कि पहिले आपकी इस निर्व्याज अहेतुक कृपा का धन्यवाद , या इन अपूर्व पुस्तकों की प्रशंसा करूँ, अथवा अपने भाग्य को सराहूँ। मुझे आपका समालोचनप्रकार बड़ा रुचता है। इसलिये प्रथम मैंने उसे ही देखना प्रारंभ किया। बहुत दिनों पीछे ऐसी पुस्तक देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिसे मैंने मनोभि-.