पं० पद्मसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम निवेश पूर्वक रात्रि के ३ बजे तक पढ़ा, पुस्तक पढ़ते समय कहीं कहीं हँसते हँसते पेट में बल पड़ गये, किसी जगह हिन्दी की दुर्दशा पर रोना आया, और कभी बा० सीताराम की हालत पर करुणा आई, कि उन्होंने क्यों ऐसी पुस्तक रचकर हिन्दी की और साथ ही अपनी दुर्दशा कराई ? पं० जी! आपकी समालोचना शैली तो अपूर्व ही है । इस विषय में तो आपने निस्संदेह 'चित्र मीमांसाखण्डनकार' पण्डितराज जगन्नाथ को भी पीछे छोड़ दिया! यदि इस समालोचना-संग्रह के पीछे किन्हीं पुस्तकों की समालोचना आपकी लेखनी से और निकली हो तो मेरी सानुरोध-प्रार्थना है कि उसे भी पृथक् पुस्तकाकार छपवा दीजिए। “नैषध चरित चर्चा के विषय में सुदर्शन के सम्पादक से जो विचार हुआ था उसे न० चर्चा के २य संस्करण के साथ छपाना चाहिए। एक प्रार्थना है, असभ्यता को माफ करके स्वीकार कीजिए। इन पुस्तकों की न्यौछावर में मैं कुछ भेंट करना चाहता हूँ, आज्ञा दीजिए कि क्या भेज दूं? पुस्तकों पर तो कुछ लिखा नहीं, नहीं तो आज्ञा लेने की आवश्यकता न होती। कृपया इस आद्य प्रणय-प्रार्थना को भंग न कीजिए, अवश्य लिखिए। क्या 'एजूकेशन' के अनु- वाद को आपने वी० पी० द्वारा मंगाया है ? मेरी इच्छा थी कि उस पुस्तक को मैं आपको भेट करूं, इसी अभिप्राय से मैंने उसका मूल्य आदि पूछा था, कल उत्तर आया है, वह लाहौर से २) को मिलता है। यदि आपने न मंगाया हो तो मैं मंगा कर भेज दूं। मेघाच्छन्नआकाश विषयक-उत्प्रेक्षा- "शीतलादिवसंत्रस्तं प्रवृक्षेण्यानभस्वतः । ' नभो बभार नीरन्ध्रजीमूतकुलकम्बलम् ॥" भवढ्या पद्मसिंह ओम् एस० डी० पी० प्रेस जलंधर सिटी १९-७-०५ श्रीमत्सु कविताकामिनीगृहीतथयवुशेशयेषु धन्यजनुः प्रणतिततयः सन्तुतराम् । कृपापत्र मिला, आनन्दित और अनुगृहीत किया। पण्डित जी! आप मुझे व्यर्थ में अतिशयोक्ति करने का उपालम्भ देते हैं।
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