पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/९५

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८० द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र सच जानिये मैंने आपके या आपकी कविता के विषय में कोई अत्युक्ति नहीं की है। 'किंतु जैसा अन्तःकरण ने लिखाया है, वैसा अविकल, लिख भर दिया है। चाहे मुझे अतिशयोक्ति का इलजाम फिर सुनना पड़े, परन्तु मैं 'काव्यमंजूषा' को देखकर यह कहे बिना कदापि नहीं रह सकता, कि 'आप संस्कृत के भी अद्भुत कवि हैं' जैसे जचे तुले, सीधे सादे, भावगभित और सरल शब्दों द्वारा अपने भाव अभिव्यक्त करने की शक्ति आप में है, वह अन्य आधुनिक कविमन्यों में नहीं देखी जाती। 'कान्यकुब्ज लीलामृत' आपकी उदारमनस्कता, जातिहितैषिता और उत्कृष्टकविता का कैसा अच्छा उदाहरण है ! 'कथमहंनास्तिकः!" को पढ़कर हृदय भर आता है। मन में अनेक भाव जागृत हो उठते हैं ! 'समाचार पत्र सम्पादक स्तव' को सुनकर हंसी नहीं रुकती। 'त्राहिनाथ ! त्राहि !' 'बाल विधवाविलाप" आदि करुणारसंपू- रित हिंदी कविताओं को पढ़कर "अपिग्नावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम्' यह स्मरण होने लगता है। सचमुच आपकी कविता के विषय में यह पद चरितार्थ होता है- "ज्योत्स्नेव हृदयानन्दः सुरेव मद कारणम् । प्रभुतेव समाकृष्ट -कवियितुः कृतिः।" पण्डित जी! क्या आपकी समुचित समालोचना के निकलने पर भी लाला साहब की 'रद्दी तुकबन्दी पाठ्य पुस्तकों से अभी तक पृथक् नहीं की गई ?' 'हिन्दी शिक्षा- वली' ज्यों की त्यों बनी है? इस पर किसी ने कुछ ध्यान ही नहीं दिया? भवत्कृत कुमार सम्भवसार को देखकर भी लोगों ने ऊँच नीच में कुछ तारतम्य नहीं जाना? हा अविशेषसते और अविवेकिते । तेरा तेरा बुरा हो!- "पिकहिमूकीवुरु घूमयोने ! भेकंचं सैकेर्मुखरी कुरुष्व । किन्तुत्वमिन्दोः प्रपिधाय ! बिम्बं खद्योतमुद्घोतयसीत्यसह्यम्॥" यह आपका अनुग्रह है जो मुझ अगण्य और अधन्य को भी इतना मान देते हैं । ठीक है- "साम्याहसर्वत्र सतांदयायानी चेरचंताया गणना न तत्र । किं नाम छायांप्रति संहरन्ति पादाश्चिते नीचतमेपि शालाः ?" विद्वद्जनादृत 'सरस्वती' में कुछ लिखने के लिये मुझे मजबूर करके श्रीमान् बहुमूल्य कौशेयवस्त्र पर शण की सिलाई कराना चाहते हैं, अस्तु, "आज्ञा गुरूणां विचा- रणीया" किसी विषय पर कुछ लिखने का प्रयत्न करूंगा। प्रथम तो अवकाश ही