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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/२७

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मेहर की डिग्री ले ली थी। बोलचाल बन्द थी, यह नहीं कहा जा सकता। नवाब साहब ऐन ज़रूरत के वक्त उनके महल में जाते-खासकर जब कुछ रुपयों की ज़रूरत होती। तब थोड़ी झड़प होती। मान मनौवल होता, और नवाब अपना मतलब हल करके तशरीफ ले आते। मगर बेगम रहती थी खूब चाक-चौबन्द, चौकस, पहरे-चौकी से मुस्तैद।

तीसरी थी एक यों ही। कोई तवायफ थी। कमसिन और खूबसूरत भी। लेकिन रज़ील, तबीयत से भी और खसलत से भी। नवाब वहाँ रोज़ रात को जाते, शाम का खाना भी वहीं खाते, शरब पीते, गाते-बजाते और कोई दो बजे तक चकल्लसबाजी करके वापस दरे-दौलत चले आते थे।

सोते थे मुकर्ररा अपनी कोठी में अकेले। कमरे में ताला लगाकर, जबकि दो संगीनधारी सिपाही रात-भर पहरा लगाते रहते थे। गरज़, बेखबरी में अपना कीमती जिस्म कभी किसी बेगम के रहमोकरम पर छोड़ते न थे।

नवाब में बहुत गुण थे। कुछ हॉबी थी; कुछ सनक थी—सनक क्या, पूरे सनकी थे! पहली बात तो यह कि आपका ख्याल था कि वे हिन्दुस्तान के सर्वश्रेष्ठ गायक हैं। हिन्दुस्तान का कोई गवैया उनका मुकाबला नहीं कर सकता। वे हारमोनियम भी बजाते थे और गाते भी थे; यदि आप उनके गाने की तारीफ कर दें तो फिर कोई चीज़ नहीं जो आप नवाब से न वसूल सकें। आप गाते थे गला भींचकर—बिलकुल बारीक बांसुरी जैसी आवाज़ गले से निकालकर, और हारमोनियम के स्वर में मिलाकर, और इसे आप एक कमाल कहते थे, दूसरों से भी कहलाना चाहते थे। जो ऐसा नहीं कहते थे नवाब उनसे सख्त नफरत करने लगते थे।

दूसरी हॉबी थी उनकी—फाउण्टेनपैन इकट्ठे करना। कबाड़ी की दुकानों पर पुराने फाउण्टेनपैनों की तलाश में आप चक्कर काटते, मौका पाते ही खरीद लाते, और फिर दिन- भर उनकी मरम्मत करते रहते। दर्जन, दो दर्जन फाउण्टेनपैन उनकी जेबों में भरे रहते। और आप दोस्तों में बड़े शौक से उन मरम्मतशुदा कलमों को बाँट देते थे। उनकी मरम्मत का गुर भी वे दोस्तों को बड़े शौक से सिखाते थे।

तीसरी सनक थी उनकी सिनेमा-स्टार बनने की। वे चाहते थे कि वे सिनेमा-स्टार बनें। उनके ख्याल में आला दर्जे के स्टार बनने के सब गुण उनमें थे। वे अर्से से एक फिल्म- प्रोड्यूसर बनने की धुन में थे परन्तु कामयाब नहीं हो रहे थे।

खर्चीले एक नम्बर थे, मगर रियासत बुरी तरह कर्जे से लदी थी। तहवील का रुपया इधर-उधर उड़ जाता था, जेब हर वक्त खाली रहती थी। यार लोग खूब खाते-उड़ाते थे। नवाब को बार-बार ज़ीनतमहल के सामने हाथ पसारना पड़ता था।

नवाब के दोस्त लोग बहुत थे। वे सब दोस्त-मुलाकाती नवाब-रईस ही न थे। जो-जो उनके गाने के मुश्ताक थे वे सब उनके पक्के दोस्त थे। नवाब बेतकल्लुफ दोस्तों के घर जाते, बैठते—सिर्फ घण्टों नहीं—दिन-दिन भर। कभी-कभी नवाब की एक-एक मुलाकात बाहर से अट्ठारह घण्टों तक की मुलाकात हो जाती थी। मुलाकात के लिए दोस्तों के घर जाकर आप वहीं जो रूखा-सूखा मिलता, खा लेते, झपकियाँ लेते—या फिर बाज़ार से खाना मँगाकर उन्हें भी खिलाते, आप भी खाते। सिनेमा ले जाते और एक-एक दिन में तीन-तीन शो देखते। रात को एक बजे आखिरी शो देख-दिखाकर, दोस्तों को अपनी उसी