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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/३०

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“बस सीधे।”

नवाब ने सन्तोष की साँस ली। नवाब अन्त में ज़ीनतमहल की ड्योढ़ी पर जा पहुँचे। गाड़ी सदर फाटक पार कर बाग में घुसी। बहुत पुरानी आलीशान कोठी। लम्बा-चौड़ा विस्तार। आखिर ड्योढ़ी पर कार रुकी। ड्योढ़ी पर दस-बारह सिपाही हथियारबन्द, मुस्तैद। सबने जल्दी-जल्दी पेटी कसी, बन्दूक संभाली और नवाब को सलामी दी।

लेकिन फाटक में ताला जड़ा हुआ। बाहर से भी और भीतर से भी। नवाब ने कहा, “इत्तिला करो।”

सिपाहियों के जमादार ने आगे बढ़कर सलाम किया और कहा, “जो हुक्म। "

वह पीछे हटा और एक सिपाही को संकेत किया। सिपाही ने छेद में मुँह लगाकर ज़ोर से आवाज़ लगाई, ‘हुजूर, नवाब साहब तशरीफ लाए हैं— इत्तिला हो!”

तीन बार आवाज़ लगाई गई। उधर से आई महरी। हथिनी-सी काली मोटी, भारी- भरकम, उसी तरह झूमती झुमके हिलाती। खिड़की में ताली घुमाई, खिड़की खोलकर झाँककर देखा, नवाब को अच्छी तरह पहचानकर बन्दगी की। कमर से चाबियों का गुच्छा निकालकर भीतर से फाटक का ताला खोला और सिपाही को हुक्म किया, “खोल दो फाटक।”

जमादार ने भी ताला खोला और मोटर भीतर ज़नाने नज़रबाग में दाखिल हुई। सामने हरे-भरे सघन वृक्षों के झुरमुट में बेगम का सफेद झकाझक महल। चोरदरवाज़े पर मोटर आ लगी। महरी ने सीने पर हाथ रखकर ज़मीन तक सिर झुकाकर कहा, 'उम्र दराज़, इत्तिला करती हूँ सरकार!” और वह भीतर घुस गई। पाँच, दस, पन्द्रह मिनट बीत गए। तब महरी ने आकर कहा, “तशरीफ ले चलिए, हुजूर।”

नवाब ने पायजामे का पाँयचा मोटर से बाहर निकाला। फिर कदम ज़मीन पर रखे, हाकिम साहब को उतारा, और महरी के पीछे-पीछे चोर दरवाज़े में घुसे। कमरों के बाद कमरे, दालान के बाद दालान, सेहन के बाद सेहन पार करते हुए, नौकरों, बाँदियों, लौंडियों और गुलामों की सलामें लेते हुए आखिर बेगम के खास कमरे में पहुँचे। सफेद चाँदनी का फर्श, चाँदी का तख्तपोश और कोच, छत में झाड़ और हज़ारा फानूस, चाँदी की एक पलंगड़ी, कीमती बिल्लौर की गोल मेज़ कमरे के बीचोंबीच।

नवाब ऐन दरवाज़े के सामने कुर्सी पर जा बैठे। हाकिम कोच पर। खिदमतगारों की फौज आई—एक के बाद एक कतार बाँधे। सबके हाथ में किश्तियाँ—मेवे के पकौड़े, पेस्ट्री, मिठाइयाँ, भुने कबाब, तले हुए मेवे, ताज़ा फल और न जाने क्या-क्या। साथ में चाँदी के सैट में चाय।

यह सब कुछ, मगर बेगम नदारद। नवाब ने हाकिम से कहा, 'करम फरमाकर चाय पीजिए।”

“लेकिन बेगम साहबा से मेरा सलाम तो कह दीजिए। "

“ये बैठी तो हैं सामने कोने में। बच्चों के लिए दुआ माँगती हैं। "

“शुक्रिया, मिज़ाज तो अच्छे हैं हुज़ूर के?”

अब उधर से,दूसरे कमरे के कोने से साफ महीन आवाज़ आई, "अच्छी हूँ, मगर आप