पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/३१

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कहीं इनकी बातों में तो नहीं बहक गए?" “मैं तो महज़ सलाम करने और यह अर्ज़ करने हाज़िर हुआ था कि हुज़ूर, अब इस उम्र में नवाब साहब को दुनिया के जंगल में अकेला न छोड़ें। यों चार बर्तन होते हैं तो खटकते ही हैं। बेहतर हो सुलह हो जाए। पुराना रिश्ता ज्यों का त्यों रहे, खानदानी इज़्ज़त बच जाए।”

  “जी, तो यह नसीहत आप मुझ ही को देना चाहते हैं। क्यों नहीं, आप मर्द जो हैं। लेकिन मर्दों की गुलामी करने की मैं आदी नहीं। इसके अलावा मैं नवाब का वज़ीफा भी नहीं खा रही हूँ।”
   नवाब सिगरेट में एक गहरा कश खींचते हुए बीच में ही बोले, “खुदा के लिए ऐसी बड़ी-बड़ी तोहमतें तो न लगाओ! मैं तो हमेशा ही तुम्हारे तलुए सहलाने का पेशा करता रहा हूँ, बल्कि किसी हद तक तो बदनाम भी हो चुका हूँ—हाकिम साहब ही गवाह हैं। "
   "नवाब ने आँखों से हाकिम साहब को एक इशारा किया। हाकिम साहब ने पेस्ट्री दाँत से काटते हुए कहा, “हाँ, इसका तो गवाह मैं भी हूँ, यह बात शहर में आम मशहूर है। "
“समझ गई, तो आप लोग सांठगांठ करके तशरीफ लाए हैं। खैर, पान क्या अभी पहुँचे नहीं?”
  “जी आ रहे हैं। अभी तो चाय ही खत्म नहीं हो रही है। यह तो इस नाचीज़ की आपने शाही दावत ही कर दी।”
 “ज़्यादा बनाइएगा नहीं, कभी बेगम को भी तो नहीं भेजते। मैं हुई बीमार, आने-जाने से लाचार। अम्मी फरमा रही हैं एक दिन बच्चों और बेगम को भेजिए।”
      “अम्मी से मेरा आदाब अर्ज़ कह दीजिए । हुक्म की तामील करूँगा — मगर उस दिन, जब हुज़ूर और नवाब साहब में मेल होने की खुशी में दावतनामा पहुँचेगा, साथ मैं भी आऊँगा।”
     “घूम-फिरकर आप मतलब ही पर पहुँचते हैं, लेकिन आप लाख सिफारिश करें, मेहर के रुपए तो मैं छोड़ने की नहीं।”

“अकेले मेहर ही की रकम पर क्या मौकूफ है, नवाब साहब की जानोमाल की भी आप मालिक हैं।”

    “अल्लाह का नाम लीजिए साहब, इनके जान-माल की मालिक वह मालज़ादी मुई बेस्वा है! जाने कहाँ से कूड़ा उठा लाए हैं! बस बैंगन है ताज़ा ! "

हाकिम साहब और नवाब खिलखिलाकर हँस पड़े। नाश्ते से हाथ खींचकर हाकिम साहब ने दो बीड़े पान मुँह में हँसे । हँसते-हँसते कहा :

  “बैंगन का यह खूब चुस्त फिकरा रहा!”
  “तो और क्या कहूँ—टमाटर, भिण्डी, करेला, कद्दू सभी तो बैंगन से महँगे हैं। यह मुई बेस्वा, पाखाने की ईंट चौबारे पर, और लुत्फ यह कि मेरी ही छाती पर मूँग दले। अब एक बछेरी लाए हैं। दावत तो आपने भी उड़ाई होगी!”

“अब यह तो घर ही ऐसा है जहाँ रोज़ दावतों ही का सीगा बँधा रहता है। यह आज की दावत क्या कुछ कम है?’’

       “जाइए, शर्मिन्दा करते हैं आप।”