पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/३२

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हाकिम साहब ने और दो बीड़े पान मुँह में ठूसे और कहा, "रंग-ढंग से तो ऐसा दिख रहा है कि दावत जल्दी ही होगी।" उन्होंने नवाब से आँखें मिलाईं।

“जी, मुँह धो रखिए।”

नवाब ने अब मुँह खोला। बोले, “सिर्फ मेहर के उन दो लाख रुपयों ही का मामला है न?”

“जी, दो लाख रुपयों की डिग्री का!" बेगम ने डिग्री पर जोर दिया।

“एक ही बात है।” नवाब ने सिगरेट का कश खींचते हुए कहा, “अच्छा यों करो, वे रुपए न तुम्हारे रहे न मेरे।”

“यानी उन्हें कुएँ में फेंक दिया जाए!"

“यह क्यों? क्यों न उनसे एक उम्दा फिल्म बनाई जाए? दो के दस हो जाएँ और दिल्लगी रहे वाते में।"

हाकिम साहब ने कहा, “तजवीज़ बुरी नहीं।”

नवाब ने जोश में भरकर कहा, “आप तो जानते ही हैं, गाने में हिन्दुस्तान की सब स्टार मेरा लोहा मानती हैं। यकीन कीजिए—बाम्बे जाता हूँ तो जोंक की तरह चिपटती हैं। खाने-सोने की फुर्सत नहीं देतीं—बस, नवाब, वह नई ट्यून ज़रा...। और रही एक्टिंग आप दीजिए मुझे नवाब का पार्ट। इसमें मुझे सीखना क्या? मैं खुद नवाब खानदानी नवाब! और डाइरेक्शन? वल्लाह, आप देखें मेरी करामात! बाम्बे में अच्छे-अच्छे पानी भरते हैं, साहब!”

हाकिम साहब ने तो चुप ही रहना मुनासिब समझा। मगर बेगम से चुप न रहा गया, बोलीं, “अब यही कसर रह गई, नाचिए-गाइए, गोया आप रईस नहीं मिरासी हैं!”

“लाहौल विला कूवत! बेगम, तुम यह क्या कह रही हो! यह आर्ट है- वह आर्ट जिसकी कद्र दुनिया करती है। विलायत में बड़े-बड़े लार्ड एक्टिंग करते हैं।"

"तो हर्ज क्या है, बनाइए फिल्म-कम्पनी।”

हाकिम साहब कहा, "फिल्म कम्पनी लाख, दो लाख में तो बनती नहीं। दस-बीस लाख चाहिए। औरों से भी रुपया लीजिए।"

“न, और किसी का क्या काम! रुपया जिस कदर चाहिए मैं दूंगी। लेकिन इन पर भरोसा नहीं करती। आप हाथ में लीजिए।"

नवाब भिन्ना उठे। हाथ की सिगरेट फेंक दी। गुस्सा होकर बोले, “इन्हीं से गाना भी गवाइए!"

हाकिम साहब ने हँसकर कहा, “मगर मैं तो हूँ सरकारी नौकर! पेंशन मिल जाए तब देखू। अभी तो दस बरस गुलामी के बाकी हैं।"

"तो बस आदाबअर्ज़ है।"

हाकिम उठ खड़े हुए। बोले, “आदाबअर्ज़ करता हूँ; और इल्तिजा भी कि अपना नफा-नुकसान सोचकर जैसा मुनासिब हो वही कीजिए, ऐसा न हो कि लोगों को हँसने का मौका मिले।"

बेगम ने जवाब नहीं दिया। खिदमतगार ने इत्र पेश किया। पान-इलायची दी। हाकिम साहब ने दरवाज़े की ओर मुँह करके आदाब बजाया और नवाब को लेकर बाहर आए।