पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/३४

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"इत्तिला करो।" “तशरीफ लाइए हुजूर, सरकार का हुक्म है, इत्तिला की मनाही है।" "अजब नादिरशाही हुक्म है!” नवाब होंठों में ही बड़बड़ाए और ड्योढ़ी में कदम रखा।

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धूम-धड़क्कों में अभी तक नवाब हुस्नबानू से एकान्त में मुलाकात कर ही न पाए थे। यह उनकी उससे पहली ही मुलाकात थी। दीवानखाने में कदम रखते ही उन्होंने देखा- हुस्न धानी परिधान में, बीच कमरे में एक कुर्सी का सहारा लिए खड़ी है। कमरे का भी एकदम कायापलट हो गया है, उसकी तड़क-भड़क की सारी सजावट हटा दी गई है और वह निहायत सफाई, नफासत और सादगी से सजाया गया है। नवाब की नज़र हुन से रपटकर पहले कमरे ही पर गई। हुन ने मुस्कराकर नवाब का स्वागत किया। बन्दगी की। ताज़ीम की। लेकिन नवाब ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा, “फुर्सत अब मिली। इतने मुलाकाती हैं! आज ही को लो—हाकिम साहब ने अब छोड़ा। मूज़ी ने दिन- भर मगज़ चाटा। लेकिन हुस्न, तुमने यह क्या किया! कमरे की सारी ही सजावट..."

“जी मुझे यही पसन्द है।"

"और बदन पर एक भी ज़ेवर नहीं! यह तो ज़्यादती है।"

“क्या कहूँ! आदी नहीं। खाना तैयार है, आप क्या अभी खाएँगे?"

“जल्दी क्या है! हाँ, गाड़ी में मेरा हारमोनियम है, ज़रा किसी से कहो, ले आए।' हुस्न ने मुस्कराकर कहा, “सुना है, हुजूर इल्म-मौसीकी के एक माहिर कामिल हैं।" "तो यों कहो सब सुन चुकी हो। लेकिन यों ही कुछ गुनगुना लेता हूँ। आज तुम्हें गाना सुनाऊँगा। पसन्द ज़रूर करोगी। मँगाओ हारमोनियम।" बानू ने दासी को संकेत किया। दासी के जाने पर नवाब ने कहा, “तुम्हारी खूबसूरती की तारीफ सुनी थी, मुद्दत से इश्तियाक था, आज देख लिया।" “कि जो सुना था, झूठ था।

“नहीं, जितना सुना उससे ज़्यादा देखा।" “शुक्रिया,लेकिन कपड़े खोलकर हलके होकर बैठिए। क्या एक प्याला कॉफी मँगाऊँ?"

“क्या हर्ज है, और सिगरेट भी।" हुस्न कमरे से बाहर गई और फिर आकर पास बैठ गई। “यहाँ तो तुम्हें सब कुछ नया-नया लगता होगा?" “जी नहीं, ऐसा मालूम होता है जैसे हमेशा यहीं रहती रही हूँ।" ,तो यों कहो तुम्हारे दिलो-दिमाग यहीं थे।" “जी!” हुस्नबानू ज़रा मुस्कराकर रह गई।