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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/४७

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उसी रात को दिलीप ने अरुणा से बात की। माता के सोने के कमरे में जाकर वह माँ के दोनों पैर गोद में रखकर पलंग पर बैठ गया। अरुणा लेटी हुई थी, एकदम पाँव खींचकर उसने कहा, "यह क्या करता है रे पाजी!"

दिलीप ने हँसकर कहा—"खुशामद कर रहा हूँ, जिससे माँ मेरे अनुकूल हो जाए!"

"लेकिन बात क्या है?"

"बाबूजी ने कहा है कि जाकर माँ से बात कर ले।"

"ब्याह के विषय में। बाबूजी रायसाहब की उस मोम की पुतली से मेरा ब्याह करना चाहते हैं, माँ!"

"अच्छा तो है, विलायती बीवी मिलेगी।"

"विलायती कहाँ, विलायतनुमा हिन्दुस्तानी। एकदम इमीटेशन।"

"तूने कोई असल हीरे की कनी ढूँढ़ ली है क्या?"

"मुझे क्या ज़रूरत है, मां, हम तुम दोनों क्या काफी नहीं है?"

"सो तुझे तो ज़रूरत नहीं है। पर तेरे और भी भाई हैं, बहिन हैं, उन्हें भी कहीं कुछ ज़रूरत नहीं रहेगी?"

"वाह’, दिलीप ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। उसने दोनों हाथ जोड़कर अभिनय-सा करते हुए कहा, "वन्दे मातरम्।"

अरुणा नाराज़ हो उठी। उसने कहा, "ये सब बातें मुझे पसन्द नहीं दिलीप, इन्होंने जब सब बातें कर ली हैं तो तू बीच में मत दुलख। तेरी लाभ-हानि की सब बातें उन्होंने सोच ली हैं। वह लड़की मैंने देखी है—बहुत सुशील है, मैं उसे खूब अच्छी तरह अपनी बहू बना लूँगी। तू बेफिकर रह।"

"तो यही पक्की रही। कह दूँ सुशील से जाकर?"

"फिर गधापन करता है, बड़े भाई को छोड़कर कहीं छोटे का ब्याह पहले होता है!"

"क्यों नहीं होता? भीष्म ब्रह्मचारी रहे थे, और उन्होंने अपने हाथों से अपने भाइयों का ब्याह किया था।"

"सो तू भीष्म की तरह ब्रह्मचारी रहना चाहता है!"

"ज़रूर रहना चाहता हूँ। जब तक मेरा देश स्वतन्त्र न हो जाए, हिन्दू राष्ट्र का उत्थान न हो जाए तब तक ब्याह करके गुलाम सन्तान पैदा करने से क्या फायदा है, माँ! फिर कौन जाने हमें किस मुसीबत में फँसना पड़े—जेल जाना पड़े, फाँसी पर लटकना पड़े। नहीं, ब्याह-शादी की अभी कोई गुंजाइश नहीं है। पहले हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान है। पीछे ब्याह-शादी। हाँ, वे इस झमेले में दिमाग खराब न करें—प्रथम तो मैं अभी ब्याह करना ही नहीं चाहता—फिर करूँगा तो सीता और सावित्री के आदर्शों पर चलनेवाली हिन्दू-कुल-ललना के साथ। जिससे मेरे सब सपने सत्य हो जाएँ।"

"सपने कैसे रे?"

"कि तुम्हारी बहू बैठकर तुम्हें रामायण का पाठ सुनाए। सूर्योदय से प्रथम उठकर