पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/४८

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स्नान करे, देवपूजन करे, गुरुचरणों की वन्दना करे, गृहस्थधर्म का सांगोपांग पालन करे, यह नहीं कि उठते ही टोस्ट-चाय। फिर पार्टियों में जाना, उपन्यास पढ़ना और सिनेमा देखना।" "सांगोपांग गृहस्थपालन कैसा रे?" "जैसा धर्मशास्त्रों में लिखा है-सोलह संस्कार, पंचमहायज्ञ, तीर्थ, व्रत, उपवास, कथा-वार्ता, दान-धर्म, यही सब कुछ तो हिन्दूधर्म है, इसी की बदौलत तो हिन्दूधर्म जीवित है। अब तक स्त्रियाँ यह धर्मपालन करती रहीं। तभी तो वे देवी कहाती हैं, अब वे भी चश्मा चढ़ा और ऊँची एड़ी के जूते पहनकर बन जाएँ मेम साहब, और पतिदेव के साथ बैठकर टोस्ट-चाय उड़ाकर सास-ससुर, गुरुजनों की सब लाज-शर्म वे बहाएँ-तो हिन्दूधर्म और हिन्दूजाति कहाँ रहेगी! रसातल में डूब जाएगी, माँ! मैं अपने घर में ऐसी औरत को घुसने भी न दूंगा।” "और घुस जाए तो?" "तो मार डंडे निकाल बाहर करूँगा।" “अभी तो तू सुशील के लिए वह मेम ले आने की बात कह रहा था। उसे लाकर उसके डंडे लगाएगा?" दिलीप थोड़ा हतप्रभ हुआ। उसने खूब ज़ोर से माँ के पैरों को गोद में दबाकर कहा, “नहीं, नहीं माँ, तुम बाबूजी को समझा देना-हमारे घर में भ्रष्टा और स्वेच्छाचारिणी कोई बहू न आने पाएगी। हमारे घर में आएँगी गृहलक्ष्मियाँ–जो सदा से हिन्दूधर्म की सांस्कृतिक प्रतिमाएँ रहती आई हैं, जिनकी पवित्रता की कहानियाँ हम श्रद्धा और आदर से कहते-सुनते हैं।” "बड़ा पण्डित हो गया है तू दिलीप, पर देख, यह सब आदर्शवाद अच्छा नहीं है। देश- काल का भी तो विचार करना पड़ता है-तू तो इतना पढ़ा-लिखा है...फिर भी यह बात नहीं समझता। अब जब नई दुनिया में नए ज्ञान का, नए जीवन का प्रकाश आया है-तू कैसे हज़ारों वर्ष पुराने आदर्शों को कायम रख सकता है! बेटे, हमें आज के युग में रहना है आज के युग का आदमी बनकर। सब बातों में पुरानी बातों की लीक पीटने से नहीं चलेगा।" “मैं क्या पुरानी बातों की लीक पीटता हूँ, माँ?" “नहीं तो क्या! तू संस्कृति और सभ्यता की बात तो करता है। तुझे पुराने हिन्दूधर्म के गुण ही गुण दिखते हैं। पर स्त्रियों ही की बात है। हिन्दूधर्म में स्त्रियों को किस प्रकार दासी की भाँति रखा जाता रहा। किसी ज़माने में तो मुर्दे पति के साथ ज़िन्दा उन्हें फूंक दिया जाता था। इसे सती-धर्म कहा जाता था। जब आठ बरस की विधवा का दूसरा ब्याह करना ही अधर्म माना जाता था तब पुरुष दस-दस ब्याह करते थे। अपनी औरतों को भेड़-बकरी की तरह बाज़ार में बेचते थे, जुए के दाँव पर लगाते थे, दूसरों को दे डालते थे। क्या तूने युधिष्ठिर-हरिश्चन्द्र और पांडुराज की कथाएँ नहीं पढ़ीं?" “पढ़ी हैं, माँ, परन्तु धर्मबन्धन भी तो होते हैं?" “खाक होते हैं धर्मबन्धन! आदमी को विचारशील होना चाहिए। और उसे जीवन में- अपने युग के साथ चलना चाहिए, बेटे! तू इतना बड़ा विद्वान् है-सो इतना भी नहीं समझता!"