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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/६५

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आपको रखना हो रखिए वापस करना हो, जाकर उन्हें वापस कर आइए,फेंक दीजिए या जो चाहे कीजिए। मैं तो इसे वापस नहीं ले जा सकती।"

इतना कहकर माया तेज़ी से कमरे से बाहर हो गई। उसके बाहर जाते ही दिलीप को ऐसा प्रतीत हुआ–जैसे सूर्य अस्त हो गया, या उसके प्राण ही निकल गए, या जीवन उलट-पुलट हो गया, या संसार असत्य हो गया। जीवन की यह अनुभूति उसके लिए असहनीय हो गई। वह बड़ी देर तक चुपचाप खुले द्वार की ओर मुँह किए खड़ा रहा। द्वार सूना था, कमरा सूना था, हृदय सूना था, आँखें सूनी थीं, संसार सूना था। उसने वह घड़ी उठाकर छाती से लगा दी। आँखों में उसके आँसू छलक आए। वह ज़ोर-ज़ोर से आह भरता, गहरी साँसें लेता हुआ कमरे में इधर से उधर घूमने लगा। एकाएक उसने सोचा मैंने उसे बैठाया भी नहीं, कुछ बात भी नहीं की। मैंने उसे पाकर खो दिया। जैसे सीता-सावित्री नया अभिनव रूप धारण करके अभी-अभी उसे दर्शन दे गई। उसके हृदय को आक्रान्त कर गई।

क्या वह फिर आएगी? एक बार मैं उससे बात करना चाहता हूँ। परन्तु किस विषय पर? क्या उससे बहस करूँ? पाश्चात्य जीवन के गर्हित वातावरण पर, जिसकी प्रखरता के लिए वह प्रसिद्ध हो चुका है। अच्छा, कदाचित् वह फिर आए तो क्या बात करूँगा? दिलीप बहुत देर तक विचारने के बाद भी कुछ निर्णय नहीं कर सका। उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कहने योग्य कुछ रहा ही नहीं। उसने एकाएक अनुभव किया कि वह अपना आपा खो चुका। अब उसके जीवन का प्रत्येक जीवकोष मायामय हो चुका था और उसका वह आदर्शवाद अतल पाताल में डूब गया था।

20

प्रेमालाप तो कुछ हुआ नहीं, पर प्रेम का अपरिसीम आदान-प्रदान हो गया। दिलीप का वह अस्पृष्ट यौवन आहत सांड की भाँति कराहने और चीत्कार करने लगा। वह बड़ी देर तक तो उस कमरे में प्रेत-आविष्ट की भाँति चक्कर काटता रहा, फिर शय्या पर गिरकर छटपटाने लगा। जैसे जलती हुई, दहकती हुई कोयलों की अँगीठी पर वह भूना जा रहा हो–जीवित। एक असह्य वेदना, एक अनिर्वचनीय आकांक्षा, एक दुर्दम्य भूख-प्यास उसे आक्रान्त कर गई। आज तक के जीवन में सर्वथा अनुभूत पीड़ा से उसके प्राण व्याकुल हो गए। उसका सारा आदर्शवाद, हिन्दू संस्कृति, धर्म-विचार, तर्क, बुद्धिवाद न जाने किस अतल भूतल में जाकर लोप हो गए। रह गई माया–केवल माया। उसके मानस-पटल पर, नेत्रों और आत्मा के अणु-अणु में माया शत-सहस्र मूर्त रूप धारण करके आनन्द-नृत्य करने लगी। उस आनन्द को–शोभा की सुषमा को आत्मसात् करने, अपने निकट लाने, अपने में ओतप्रोत करने को वह जितना ही व्यग्र होने लगा, उतना ही वह उससे दूर, अधिक दूर, उसकी पहुँच की सीमा के बाहर दिख पड़ने लगी।

किन्तु एक बार भी उसके मन में यह बात न आई कि जिस माया के लिए वह इतना व्याकुल हो रहा है, जिस माया का इतना अभाव वह अपने जीवन में अनुभव कर रहा है,